Sunday, December 12, 2010

मन कृन्दन !!

हे प्रभु, शत शत नमन तुम्हें, 
अर्पित ये मन कृन्दन तुम्हें !!
१.मन है व्यथित, है शर्मसार,
लख नित नवीन ये भ्रष्ट्राचार,
ये दुराचार, ये ब्याभिचार,
मन को कचोटते बार-बार,,
२. सोने की चिड़िया थी कभी,
अब भूख से मानव है लाचार,
है नग्न मानवता, सड़कों पर, 
माँ-बहने सहती नित अत्याचार!!
३. कहते हैं हिंद है कर रहा,
दिन-रात विकास का ये प्रसार,
फिर क्यूँ है भटकता गलियों में, 
उन्मादित सा ये बेरोजगार !!
४. क्यूँ क़द्र नहीं, उन सपनों की, 
जो निर्धन की आँखों के हैं, 
क्यूँ धनी बने हैं, धन्य प्रभु 
क्यूँ निर्धन सहता हर प्रहार!!
५. क्यूँ शिक्षा पर है बोझ यहाँ, 
क्यूँ बचपन है मुरझाया सा, 
क्यूँ यौवन करता नादानी,
क्यूँ मानवता रोती बार-बार!!
६.जन की पीड़ा का कृन्दन ये,
मन की वीणा का गुंजन ये, 
हे प्रभु, क्या तू भी भूल गया,
धरती पर लेना अब अवतार....
सुर्यदीप "अंकित" १३/१२/२०१० 

5 comments:

  1. मन की पीड़ा का कृन्दन, जो बरबस मुझे कुछ कहने को प्रेरित कर रहा है, मन में रोष है, बेबसी है और...एक थकान है.. देश में व्याप्त भ्रष्ट्राचार को लेकर.... शुभ हो.. सब कुछ

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  2. बहुत सुन्दर रचना .... बहुत कुछ कह दिया है आपने इस रचना के माध्यम से ... आभार

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  3. सुंदर भावों से सजी रचना

    http://veenakesur.blogspot.com/

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  4. धन्यवाद बीना जी, महेंद्र जी !!

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