Name Plate - (बदलते रिश्ते)
(एक गीत कथा)
घर के बाहर सुन्दर तख्ते पर,
स्वर्णाक्षर इक नाम लिखा था !
नाम के ऊपर ही चाँदी से,
पित्र-कृपा एक शब्द खुदा था !!
दहलीज़ पार, घर भीतर में,
एक सुन्दर महल निराला था,
थे गद्दी मसनद भरे-भरे,
लिपटा रंगीन दुशाला था,
कुछ लोगों के थे कहकहे,
कुछ हाथों में एक प्याला था,
फल-फूल की टेबल सजी हुई,
बजता संगीत निराला था !!
वहीँ पास खड़ी मधुशाला थी,
तीखे नयन लिए एक बाला थी,
होंठों पर एक मुस्कान लिए,
तन पर अपने अभिमान लिए,
लोगों का वो सम्मान लिए,
भरती प्याले में हाला थी !!
इक दुसरे कोने में घर के,
कुछ और भी थे मेहमान रहे,
कुछ नारी और कुछ नर थे,
कुछ बच्चे थे वहाँ खेल रहे,
वहीँ पास में एक सिंहासन पर,
एक वृद्ध जोड़ा भी बैठा था,
चमकीले वस्त्र थे पहने हुए,
चेहरे पर रौब अनूठा था,
थी वर्षगाँठ शादी की उनकी,
पच्चीस साल थे पूरे किये,
इसी ख़ुशी में बेटे ने, दे दावत,
पूरे उनके अरमान किये,
बेटा चरणों में बैठा था,
बहु का आदर नतमस्तक था,
माँ-बाप की आँखों में भी,
एक आनंद अनोखा था,
मेरे कदम उठे और पास गए,
मुझे देख के वो वृद्ध थे खड़े हुए,
फिर पास बुलाकर मुझको वो,
वहीँ पास के एक कमरे में गए,
जब लौटे तो कुछ खुश-खुश थे,
हाथों में कुछ एक पन्ने थे,
दे हाथ मेरे उन पन्नों को,
सर ऊँचा कर सब से बोले,
आज ख़ुशी की बेला है,
जीवन जी भर के खेला है,
कर सब कुछ बेटे के नाम अभी,
जियूं ख़ुशी-ख़ुशी, जब तक
जीवन का मेला है,
बेटे की आँखें चमक उठी,
और बहु भी मन से चहक उठी,
मैं भी ख़ुशी-ख़ुशी उन पन्नों को,
पढ़ सबको वहीँ सुनाने लगा,
फिर बैठ वहीँ किनारे पर, नई
एक वसीयत बनाने लगा,
कर पूर्ण काम मैं दावत ले,
घर से उनके फिर विदा हुआ,
जाते जाते फिर एक बार, देखा
वो तख्ता, बाहर जो खुदा हुआ,
कुछ दिन बीते, कुछ माह गए,
एक साल भी लगभग गुजर गया,
एक दिन सुबह -सुबह घर बाहर,
डाकिया कुछ पटक कर गया,
खोला देखा तो एक अर्जी थी,
घर फिर से बुलाने की मर्ज़ी थी,
कुछ देर हुई मैं तत्पर था,
झटपट से उनके घर पर था,
मैंने देखा वो इक तख्ता था,
पर नाम कोई अब दूसरा था,
न पित्र-कृपा ही दिखा कहीं,
एक बदला नाम सुनहरा था,
मैं घर भीतर को आया,
मगर नहीं कोई पाया,
सब कुछ था पहले जैसा
पर स्वागत को न कोई आया.
मैंने पुछा एक नौकर से,
कि घर के मालिक कहाँ गए,
बोला वो निकले सैर को हैं,
दो-एक दिन मैं ही आयेंगे कह गए,
फिर बोला गर मिलना है, अभी
बड़े मालिक हैं तुम मिल लो,
घर के बाहर इक घर है,उनका
चाहो तो अभी चल लो,
मैं बोला घर तो ये ही है उनका,
ये घर के बाहर कैसा घर,
वो बोला...बाबूजी.. ये दुनिया है,
और यहाँ यही होता अक्सर.
फिर क़दमों को लेकर अपने,
बाहर किनारे को निकला,
देखा इक छोटा सा कमरा,
इस बड़े घर के बाहर निकला
मैंने देखा कि वो वृद्ध वही हैं,
जिनको पहले मैंने देखा था,
पर नहीं थी अब वो बात पुरानी,
या जैसा वो चेहरा मैंने देखा था,
उस घर के भीतर का एक कोना,
था उनका बस वही ठिकाना,
एक टूटी सी खाट पुरानी,
एक फटी चटाई का बिछोना,
दो बर्तन जख्मों के मारे,
चूल्हे सोये थे अंगारे,
कपडे टके पैबंद किनारे,
सपने सब अपनों के मारे !!
उन बूढी आँखों की आशा,
सर्द से चेहरे, शिकन, निराशा,
कांपते हाथों की वो हताशा,
आहों से आता इक धुंआ सा,
मुझको अब भी याद है वो सब...
जो देखा करता मैं हमेशा !!
लेकर लाठी का संबल,
वो खुद आये, मुझ तक चल कर,
आँखों में थी बैचेनी,
क़दमों में कम्पन था रह-रह कर,
उस वृधा के आँखों में भी,
बहती रहती धारा थी,
टूटी खाट के एक कोने में,
वो बैठी लेके सहारा थी,
देख दशा इन दोनों की,
पल भर में सब कुछ समझ गया,
मन का संशय, परिपक्व हुआ,
और मन संतापित सा उलझ गया,
कुछ ही पल में, मैंने था,
मन भीतर कुछ ठान लिया,
लौटाने का सब कुछ इनका,
और जो था सम्मान लिया,
बैठ उसी पल, टूटी खाट पे,
कागज़ में कुछ लिखने लगा,
और अंत में उन दौनों से,
कर दो हस्ताक्षर कहने लगा,
फिर उनको दे आश्वासन,
मैं घर को था लौटा,
मन था व्यथित, और आक्रोशित,
इंसां को देख छोटा,
साँय काल को फिर एक बार,
मैं घर को उनके पहुंचा आया,
देकर उनको कुछ वस्त्र नए,
उन्हें घर पुराने मैं लाया,
हाथ में दे, एक नई वसीयत,
घर उनके कर नाम आया,
बाहर आकर उस तख्ते पर,
नाम उनका फिर से लिखवाया,
प्रातः काल जब बेटा लौटा,
देख लगा सदमा मोटा,
सब कुछ लगता था बदला सा, और
घर उनको मिला बाहर वही छोटा,
देख स्तिथि अपनी ये सब,
आँखों में जल वो लाया,
बोला मैं हूँ नीच अधम,
मैंने जो ऐसा कर्म किया,
फूट-फूट रोई, दुल्हन,
और चरणों में गिर जाती थी,
बच्चों को रोता देख वहीँ,
वृद्धों की आँख भी भर आती थी,
फिर से उनको क्षमा दान दिया,
फिर से उनका मान दिया,
और गलती मान के बच्चों ने भी,
फिर ये सब न होगा ये प्रण किया,
मैं खुश था, वो सब खुश थे,
ये जान के मैं घर को आया,
मन का भ्रम को रख किनारे,
चैन की नींद था मैं सोया,...
फिर कुछ दिन बीते, कुछ वक्त गया,
अखबार फिर आज का वो पटक गया,
देख के पहला पृष्ठ वहीँ,
रही आँख खुली, दिल बैठ गया,
अखबार के पहले पृष्ठ पर ही,
दोनों वृद्धों की तस्वीर छप आई थी,
दिए प्राण त्याग संग दोनों ने,
खबर अखबार में ये छपाई थी..
दिए प्राण त्याग संग दोनों ने,
अखबार में ये छपाई थी.. ...........
सुर्यदीप अंकित त्रिपाठी - ३०/०७/२०११