"मन बहुत चंचल होता है, लेकिन विवेक मनुष्य की चंचलता पर विराम लगाता है,
लेकिन प्रेम वशीभूत मन के अन्दर इक प्यास सदैव रहती है, उसी प्यास का खाका खींच कर जब उसका
मन अपने ही प्यासे मन को समझाता है, की प्रेम जीवन के लिए आवश्यक है, तो मन की प्यास और अधिक बढ़ जाती है,
तब विवेक भी उसकी चंचलता पर विराम नहीं लगा सकता, इक ऐसी ही दुविधा मन और प्यासे मन के बीच......श्रृंगार रस प्रदर्शन"
प्रेम पिपासा और मन का अंतरद्वंद्ध.....
है प्रेम-हृदय, प्रस्तर न समझ,
प्रस्तर न समझ, मत तोड़ इसे,
मत बंद पलक कर, खोल इसे,
मन खोल इसे, मन मुस्काकर !!
वो देख मधुर, खग-वृन्द वहाँ ,
पुलकित हैं, सुगन्धित पुष्प वहाँ,
इन शब्दों को बंदित मत कर,
बंदित मत कर, मुख खोल इसे !!
वो जल बरसाता इक बादल,
मन मरू-तृष्णा का इक संबल,
कटि अपनी सुराही जल भरकर,
प्यासे मन पर, तू ढोल इसे !!
मन है चंचल, इक नदिया सा,
यौवन, सागर लहराता सा,
मत बांध तू, इसको मिलने दे,
यौवन सागर पट, तू खोल इसे !!
इन अधरों से ले कुछ कंपन,
कर नयनों के कुछ तीर सहन,
कर कोमल गात का आलिंगन,
रस प्रेम मधुर, तन, ढोल इसे !!
तन ढोल इसे मन, मुस्काकर !!
सुर्यदीप "अंकित" - २७/०१/२०११
मन प्रफुल्ल करती रचना...
ReplyDeleteधन्यवाद सुशील जी...
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