श्रृंगार रस वो रस है जिसमें प्रेम के दौनों पहलुओं का परिचय दिया जाता है...एक है मिलन और एक है विरह... दौनों की ही अनुभूति बहुत ही संवेदनशील होती है. और दौनों का ही अपना अपना महत्व काव्य में देखने को मिलता है...आज आपके सामने श्रृंगार रस के मिलन भाव को प्रदर्शित करती ये रचना बहुत समय के बाद रख रहा हूँ... शब्दों का चयन आधुनिक नहीं है, लेकिन प्रेम का भाव कभी पुराना नहीं होता इस लिए... इसे पढ़ते वक़्त आप अपने आपको महसूस करेंगे की आप श्वेत-श्याम चित्रपटल पर यह देख रहे हैं....जहाँ नायिका को मधुर मिलन की आस है, लेकिन मन में एक संकोच, एक लज्जा भी है..वहीँ नायक किस प्रकार से नायिका को समझा रहा है...जरा देखे तो.....
मोहे, लाज पिया अति आए,
ना घूंगट पट खोलूँ,
मन, मोरा भटक ना जाए....मैं नयन पटल नाहीं खोलूं...
चन्द्र वदन, दऊ चंचल नयना,
दंत धवल, मुख रजत सुवर्णा,
अधर अँगार, मधुर मधु बैना,
केश सुसज्जित, पुष्प पुलिकना,
क्यूं मन मधुमास न छाए.....तोहे, लाज प्रिया क्यूँ आये.....
कँवल नयन तोरे, केश भ्रमर सम,
लाल नयन डोरे, श्याम सुखद तन,
रक्त अधर सज, मुरली हरे मन,
मन उन्माद बढ़त, प्रति-प्रति क्षण,
हिय, मधुर मिलन उकसाए..... मोहे, लाज पिया यूँ आये.....
मेघ बरस धरती सुख पाए,
बीज पनप, वृक्ष फल आये,
तिसना प्रेम की, जल से न जाए,
मिटे प्यास जब, प्रेम रस पाए,
सुन, कामदेव हरसाए.... तोहे प्रेम-पाठ समझाए....
तोहे लाज प्रिया क्यूँ आये....
हिय, मधुर मिलन उकसाए.....
सुर्यदीप अंकित त्रिपाठी - २३/०४/२०११
बहुत सुंदर कविता सुर्यदीपजी ....कभी कुछ इसी तरह राधा ने आपने सखा से कहा था - "तुम क्यूँ नहीं समझते 'कनु' मेरे.......तन से ज्यादा......मन की भी लाज होती है"
ReplyDeleteDhanyavaad..Gunjan ji..for your nice comments...
ReplyDeleteRadha Krishna samwad ki yaad taja ho gayi...gunjan ji ne sahi kaga..aaj kal kahan likhi jaati aisi dohatamak kavitayen...
ReplyDeleteBahut khoob...
वाह मित्र,बहुत सुन्दर रचना है.
ReplyDeleteधन्यवाद, विजय रंजन जी...एवं हर्षवर्धन जी... आपके प्रोत्साहन हेतु...
ReplyDeletewah bhai sahab aapne to kamaal kar diya. very nice poem
ReplyDeleteDhanyavaad... Pradeep Kumar ji.. :)
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