Saturday, April 21, 2012

प्रिय मित्रो,
मेरी ये नई ग़ज़ल उस इंसान, उस झूठी ताकत, रसूख या देश के उस प्रभुत्व को एक सन्देश है ! हो सकता है कुछ लोग सहमत हो....कुछ नहीं... पर शायद अब वक़्त हो चला है कि "समां बदलना चाहिए"... "शुभ"

कितने जख्मों से भरा है, तेरा ये हाथ रकीब,
छोड़ खंज़र तेरे हाथों का, बस एक फूल तू रख !!
बेगुनाहों पे रहम कर, तू रहमदिल बन जा (२),
यूँ गुनाहों से सरोबार, झुका सर तू न रख !! .......
           छोड़ खंज़र तेरे हाथों का, बस एक फूल तू रख !!

क़त्ल कितने ही किये तूने, कितने घर लूटे (२),
दौलते-ख़ून न रख घर में, सुकून-चैन तू रख !!
           छोड़ खंज़र तेरे हाथों का, बस एक फूल तू रख !!
राह जितने भी थे पत्थर, वो तूने हटवाये (२),
किसी पत्थर से तो डर, पूज, उसे दिल में तू रख !!
            छोड़ खंज़र तेरे हाथों का, बस एक फूल तू रख !!
यूँ न हो की तेरे इस हाथ में, इक हाथ न हो,
तू चला जाता अकेला हो, कोई साथ न हो,
आखरी वक़्त है, दो-चार करम साथ तू रख !!
छोड़ खंज़र तेरे हाथों का, बस एक फूल तू रख !!
यूँ गुनाहों से सरोबार, झुका सर तू न रख !! ....... सूर्यदीप अंकित त्रिपाठी-२१/०४/१२

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