Thursday, January 27, 2011

प्रेम पिपासा और मन का अंतरद्वंद्ध.....


"मन बहुत चंचल होता है, लेकिन विवेक मनुष्य की चंचलता पर विराम लगाता है, 
लेकिन प्रेम वशीभूत मन के अन्दर इक प्यास सदैव रहती है, उसी प्यास का खाका खींच कर जब उसका 
मन अपने ही प्यासे मन को समझाता है, की प्रेम जीवन के लिए आवश्यक है, तो मन की प्यास और अधिक बढ़ जाती है, 
तब विवेक भी उसकी चंचलता पर विराम नहीं लगा सकता, इक ऐसी ही दुविधा मन और प्यासे मन के बीच......श्रृंगार रस प्रदर्शन"
प्रेम पिपासा और मन का अंतरद्वंद्ध.....
 है प्रेम-हृदय, प्रस्तर न समझ,
         प्रस्तर न समझ, मत तोड़ इसे, 
 मत बंद पलक कर, खोल इसे,
         मन खोल इसे, मन मुस्काकर !!

 वो देख मधुर, खग-वृन्द वहाँ ,
         पुलकित हैं, सुगन्धित पुष्प वहाँ, 
 इन शब्दों को बंदित मत कर, 
         बंदित मत कर, मुख खोल इसे !!

 वो जल बरसाता इक बादल, 
         मन मरू-तृष्णा का इक संबल, 
 कटि अपनी सुराही जल भरकर, 
         प्यासे मन पर, तू ढोल इसे !!

मन है चंचल, इक नदिया सा, 
        यौवन, सागर लहराता सा,
 मत बांध तू, इसको मिलने दे, 
        यौवन सागर पट, तू खोल इसे !! 

 इन अधरों से ले कुछ कंपन, 
        कर नयनों के कुछ तीर सहन,
 कर कोमल गात का आलिंगन,
         रस प्रेम मधुर, तन, ढोल इसे !! 
 तन ढोल इसे मन, मुस्काकर !!

 सुर्यदीप "अंकित" - २७/०१/२०११ 

Monday, January 24, 2011

भारतवर्ष !!



भारतवर्ष !!
(देश का वक्तित्व)
देश मेरा, इस धरा पर, सबसे ऊंची शान है !
है सनातन, युग पुरातन, सदगुणों की खान है !!
है धरा का हरित आँचल, दुग्ध सी गंगा बहे, 
श्रृंखलाएं पर्वतों की, ताज सर "हिम" का रहे !! 
(देश की प्रकृति)
वन घने वृक्षों से उन्नत, धन-औषधि भंडार है,
दिव्य पुष्पों से सुसज्जित, धरती का श्रृंगार है !!
नित भोर की एक भेंट लेकर, नमन करता है रवि,
खग-वृंद का कलरव अनोखा, प्रकृति की अद्भुत छवि!!
(देश के युग पुरुष-महिलाएं) 
सीता सी नारी यहीं है, हैं कृष्ण की राधा यहीं,
प्रेम-पागल मींरा ने भज, कृष्ण को पाया यहीं !!
राम हैं जन्मे यहीं पर, कृष्ण का अवतार भी !
गांधी, नेताजी, शिवाजी, भगतसिंह सरदार भी !!
(देश के सपूत) 
याद है राणा का रण और, एक झांसी रानी भी, 
याद है वीरों का लड़ना, "आजाद" की कहानी भी !!
देश के सच्चे वो नायक, सीमा पर हैं जो डटे, 
जिनके बलपर हम सुरक्षित, चैन से रातें कटे !!    
(देश की एकता और उपलब्धियां)
गीता की शक्ति धरा में, कुरआन के सन्देश भी, 
मन रहे ईसा की मूरत, गुरबानी के उपदेश भी !!
है "कलाम" सा एक हीरा, जिसपे हमको नाज़ है !
"रहमान" ने संगीत की, दुनियाँ का पहना ताज़ है !! 
(देश के पर्व) 
रंग-बिरंगे पर्व हैं, और रंग बिरंगी बोलियाँ,
दीपों के जगमग कहीं, कहीं होली की हैं टोलियाँ !!
ईद की मीठी सेवैयाँ, रौनकें बैसाख की, 
प्रेम की ऊँची पतंगें, लोहड़ी में तपते हाथ की !!
(देश की वर्तमान उपलब्धि)
विश्व शक्ति बनके उभरा, विश्व का नेतृत्व है,
सूर्य सा है तेज जिसका, मान भी सवोच्व है !!
कहते-कहते मैं थकुंगा, ख़त्म होगी न इसकी शान ,
धन्य है ये देश मेरा, धन्य गाथा ये महान !!
सुर्यदीप "अंकित" - २४/०१/२०११  

Friday, January 21, 2011

पतझड़ .... वक़्त का वो बेबस लम्हा....(Patjhad..waqt ka wo bebas lamha)






पतझड़ .... वक़्त का वो बेबस लम्हा....
मैंने देखा है वक़्त के समुन्दर में बहता वो लम्हा, जो हमारी जिंदगी में कभी भी सकता है सुनामी बनकर, 
मैंने देखा हैं उन सफ़ेद बालों वाले लोगों की आँखों से बहता पानी, चेहरे की पीड़ा, वो मायूसी, वो बेबसी
जो उन्हें देखनी पड़ती है उम्र के इस मुकाम पर.
मैंने देखा है पतझड़ आने पर टूटते पत्ते, और देखा है उनकी जगह लेती नई जिंदगी,
मैंने देखा है एक पुरानी कुर्सियों का बंद वो कमरा, जिसके बाहर सजें हैं आलिशान सोफे..
और.....मैंने ये भी देखा है, कि किस तरह लोग धकेल देते हैं अपने ही वजूद को घर के बाहर...
एक ऐसी ही घड़ी का सामना, जब...उम्र के इस मुकाम पर इन बुजर्गों को करना पड़ता है तो...उनकी लाचारी, 
बेबसी बस यही बयाँ करती है और एक दुसरे को समझाती है कि ...

1. चलो दुनियाँ के सितम भूलें, यहीँ छोड़ें आँसू,

ग़म की ये रात भी ढल जाएगी, सुबह, आएगी !!
पीछे मत देख, कि अब घर का नहीं नामों-निशाँ, 
आग से ख़ाक हुई खुशियाँ, नहीं दिख पायेंगी !!
2. है भरोसा मुझे ख़ुद पर, कि बसर चैन से होगी,
ये यकीं तू भी दिलाएगी तोतकदीर, निखर जायेगी !!
जिन्दा रहने के लिए, नहीं रोटी, तेरी उल्फत काफी,
रख संभाले यही यादें, वक्त-बेवक्त, काम आएँगी !!
3. साथ तेरा है तो, राहें भी निकल आएँगी,
हाथ तेरा, जो मेरे हाथ, जिंदगी ये भी सँवर जायेगी !! 
हर कदम साथ तेरा, साथ चले गर, मेरे हमदम,
मुश्किलें, पीछे, बहुत पीछे, छूट जाएंगी !!
सुर्यदीप "अंकित" - २१/०१/२०११ 

Wednesday, January 19, 2011

KUCH RISHTEY.....कुछ रिश्ते..

रिश्ते !!
रिश्ते इस दुनियाँ में, कुछ कम ही निभा पाते हैं, 
कहीं ताउम्र चलें, और कहीं, शाम को ही, ढल जाते हैं !!
माँ के आँचल से, लिपटकर, नहीं रोया कब से,  
रोके तनहा किसी कोने में ये, अरमान निकल जाते हैं !! 
(बिन माँ के बच्चे की व्यथा) 
बाप ने कब से नहीं रक्खा है, सर पे हाथ मेरे, 
जख्म हाथों के मैं, कहीं देख न लूँ , वो डर जाते है !!
(ये एक ऐसी विडम्बना है जहाँ लोग आपको चाहते हुए भी प्यार नहीं कर सकते, या उसे प्रदर्शित नहीं कर सकते)
उसके दामन में जो,  कुछ देर रख दूं, सर अपना, 
दिल से उठता है धुंआ, लोगों के, वो जल जाते हैं !!
(और कुछ पल जब मैं सुकूं के चाहता हूँ, तब लोगों की नाराजगी, उनकी जलन या पीड़ा मुझे उस सुकून से महरूम कर देती है)
प्यार बच्चों से करूँ, तो करूँ, किस पल आखिर,
सुबह मैं मिलता नहीं, रात को वो, सो जाते हैं !!  
और एक चुभन तब होती है जब मैं अपने बच्चों के साथ नहीं हो पाता,या उनके साथ खेल नहीं पाता,
 क्योंकि वो लम्हे जब मैं उनके साथ खेल सकता हूँ, प्यार कर सकता हूँ, वो लम्हे या वो वक़्त मैंने किसी और के पास गिरवी रखे हैं)
 
है अज़ब दुनियाँ का दस्तूर, मेरे, ख्वाबों से परे, 
आँख खुलते ही, अंधरे भी, नज़र  आ जाते हैं !!   
(और कुछ रिश्ते, जो लोग सिर्फ स्वार्थ के लिए बनाते हैं, बहुत दुःख होता है जब उनकी असलियत सामने आ जाती है)
और एक रिश्ता है, दुनियाँ में, बड़ा ही रंगीं,
दोस्ती नाम है उसका, सब रंग उसमें, समां जाते हैं !! 
(और ये रिश्ता जो कि हर मज़हब में, हर धर्म में, हर रंग में दिखाई देता है, दोस्ती का रिश्ता, इसमें कोई स्वार्थ नहीं होता, कभी ये माँ-बाप का प्यार देता है, कभी भाई-बहन और कभी किसी चाहत का, सच कहा जाये तो ये रिश्ता ही सब लोगों को कोई और रिश्ते बनाने को प्रेरित करता है, और यही रिश्ता भाई-बहनों के बीच होता है) 
सुर्यदीप "अंकित" - १९/०१/२०११ 

Friday, January 14, 2011

मकर संक्रांति - KUCH PATANGEN..


मन है प्रफुल्लित, है उत्साहित, देख अम्बर की छटा,
तितलियों सम, रंग-बिरंगी, उड़ती कई, पतंगों से पटा !!
कुछ पतंगें आसमां की, हद को छूना चाहती,
कुछ पतंगें लड़खड़ा कर, घर को वापस लौटती !!
कुछ पतंगें, लगती सहमी, होगा क्या, अब उनका हाल, 
डोर से जब साथ छूटा, सामने बच्चों का जाल !!
कुछ पतंगें, लड़-झगड़ कर, चोट खाकर लौटती, 
करके मरहम पट्टी, फिर से, आसमां को चूमती !!
कुछ पतंगें, छत के ऊपर, "शीला" सी शोभित रहे, (सजी-सजाई पतंगें) 
कुछ पतंगें, "मुन्नियों" सी, गुमनाम गलियों में रहे !! (गलियों में तार-तार हुई पतंगें) 
कुछ पतंगें, काट करके, पास "पप्पू" हो गया, 
कुछ पतंगें, लूट करके, "कलमाड़ी" "राजा" बन गया!!
कुछ पतंगें, रेल की पटरी पे जाकर "कट" गई, 
कुछ पतंगे, छत की ऊँचाइयों से, गिर कर "फट" गई !!
है यही मन-कामना, कि, शुभ-सुमंगल रहे ये पर्व, 
सूर्य कि भाँती चमकना, हो सभी को तुमपे गर्व !!
"सुर्यदीप "अंकित" - १३/०१/२०११ 
 

Monday, January 10, 2011

"आईना" (Aaina - The Mirror)

"आईना"
ट्रेन चल रही थी...
अभी कुछ देर पहले ही उसने लखनऊ स्टेशन छोड़ा था. वो, उसकी पत्नी सुनीता,  इसी ट्रेन से सफ़र कर रहे थे.
शाम करीब साढ़े पांच बजे का समय था, 
"सुनीता, मैं अभी एक मिनट में आता हूँ" कहकर वो वाश रूम की तरफ बढ़ गया.
वाश रूम रेल के उस डिब्बे के अंतिम छोर पर था...दो-तीन केबिन पार करने के बाद वो वाश रूम पहुंचा, हाथ-मुँह धोने के पश्चात, जैसे ही वह वाश रूम से बाहर निकला, उसने देखा की एक औरत वहीँ बाथरूम के किनारे खाली जगह पर बैठी हुई थी, उलझे गंदे बाल जो चेहरे पर इस तरह से फैले हुए थे जैसे की चेहरा दिखाते हुए इन्हें शर्म आ रही हो,  मैले, जगह-जगह से पैबंद किये वस्त्र, और उसकी गोद में एक बच्चा, उम्र यही कोई एक-डेढ़ साल, पास में ही पड़े हुए, या यूँ कहो किसी का दिया जूठन खा रही थी.. उसने उसकी तरफ पांच रूपये का सिक्का फेंका, जो ठीक उसके पैरों के पास गिरा, उस औरत ने उसे झटपट उठा लिया...फिर सर उठा कर उस औरत ने उसकी तरफ देखा...उसकी भी नज़रें उसकी नज़रों से टकराई, उसने देखा की उस औरत की आँखों में एक अजीब सी चुभन थी..फिर उसने देखा कि उस औरत ने उसका दिया सिक्का  जोर से उसी की ओर फ़ेंक दिया, उस औरत की आँखों में अब आंसू थे.. उस आदमी ने अचंभित होकर गौर से उसकी तरफ देखा और कहा "क्यों क्या पैसा नहीं चाहिए ?" उस औरत ने कुछ न कहा, बस सिसक-सिसक कर रोती रही. वो फिर बोला - "यदि कम है तो और ले लो, कहकर उसने दस रूपये का नोट निकलकर उसकी तरफ बढाया,. उस औरत की आँखों की चुभन और तेज प्रतीत होने लगी उसे. तभी अचानक उस औरत ने उस बच्चे को नीचे जमीन पर लेटाया, और अपने चेहरे से बालों को हटाकर उस आदमी की तरफ देखा...उसकी आँखों की चुभन अब तक अंगारों का रूप ले चुकी थी. आंसू लावे की तरह बहकर उसके गालों से होते हुए, नीचे 
गिर रहे थे.... उस आदमी ने उसका चेहरा देखा.. उसकी आँखों में कुछ डर सा दिखा 
"तुम क्या चाहती हो "  एक आँखें सिकोड़ती दृष्टी उस औरत पर डाली.
" मैं" उस औरत ने चुभती आँखों से उस आदमी को घूरते हुए कहा. 
आदमी  ने मुंह फेर लिया, उसकी आँखों में एक अजीब सी दहशत दिखाई दे रही थी,
औरत उसके सामने आई और कहा, "आज इतना क्यों शर्मा रहे हो, जो नज़र तक नहीं मिला सकते ?" राजेश मैं तुम्हारी अस्मिता हूँ, वही अस्मिता, जिसे तुमने आज से दो साल पहले ठुकरा दिया था".
"नहीं" मैं तुम्हें नहीं जानता, उस आदमी ने फिर नज़रें चुराते हुए कहा, और मेरा नाम राजेश नहीं है, तुम्हें जरूर कोई गलतफहमी हुई है, मुझ जैसा कोई दिखता होगा"
"मैं, तुम्हें कैसे भूल सकती हूँ राजेश, तुम्हारे साथ ही तो मैंने प्यार किया था..और अपना घर छोड़ कर तुम्हारे साथ चली आई थी"
"मैंने कहा न, कि मैं तुम्हें नहीं जानता" अब उस आदमी ने उसकी आँखों में आँखें डालकर कहा 
"राजेश", उसने चिल्लाकर कहा "मैं नहीं जानती थी कि तुम इतने कायर होंगे, कि अपने प्यार को भी नहीं पहचानोगे, काश में तुम्हारी उन मीठी-प्यारी बातों में नहीं आती, तो इस तरह आज मैं अपनी जिंदगी नहीं जी रही होती" उस औरत कि आँखों में आंसू थे, मैंने तुम्हें प्यार किया, तुमने मुझे अपनी बातों में फँसा कर मुझे बर्बाद किया, मैंने तुम पर भरोसा करते हुए, तुम्हें अपने आपको सौंप दिया, और तुम... तुम इतने गिर गए कि मुझसे मेरा सब कुछ छीन कर मुझे अकेला छोड़ कर चले गए" 
पास के केबिन से लोग आकर वहां इकठ्ठा होने लगे, उन्होंने देखा कि वो औरत, उस आदमी पर चिल्ला रही थी, 
उस आदमी ने भीड़ कि तरफ देखते हुए कहा " देखिये भाईसाहब, ये औरत ख्वामख्वाह ही मेरे गले पड़ रही है, कह रही है कि ये मुझे जानती है और हम एक दुसरे से प्यार करते थे, आप लोगों को तो पता ही है कि आज दोपहर को ही में अपनी पत्नी के साथ इलाहाबाद से इस ट्रेन में बैठा हूँ"  
लोगों ने उस औरत को डांटते हुए कहा " क्या बात है, क्यों इस भले आदमी को परेशान कर रही हो, तुम बेशर्म औरतों को कोई भीख नहीं दे, तो तुम उसी पर दोष देने लगती हो, शर्म आनी चाहिए तुम्हें"
औरत ने कुछ बोलना चाहा लेकिन लोगों ने उसे डांटकर चुप कर दिया, वो सहम कर चुपचाप वहीँ कोने में बैठ गई, जैसे कि उसकी मन कि मुराद पूरी न हो पाई हो. 
उस आदमी ने भीड़ को धन्यवाद दिया और कहा, अच्छा हुआ आप लोग आ गए, नहीं तो पता नहीं ये औरत क्या बखेरा खड़ा करती. और वह आदमी अपने केबिन कि ओर चल पड़ा, वहां पहुँच कर वह अपनी सीट पर बैठ गया.
सुनीता ने पुछा - "बड़ी देर लगा दी"
"हाँ" वो वाशरूम थोडा बिजी था.
सुनीता ने कहा - " मैं अकेले में बहुत घबरा रही थी, तुम्हें तो पता है, मैं तुम्हारे बिना एक पल भी नहीं रह सकती"
"हाँ ये बात तो है" वो बोला
"तुम्हारे कहने से मैं तुम्हारे साथ अपने घर से भाग कर आ गई हूँ, अब मैं तुम्हारे भरोसे ही हूँ, कभी इस तरह मुझको छोड़कर मत जाना, मैं घबरा जाती हूँ"
"हाँ सुनीता, मैं भी तुमसे उतना ही प्यार करता हूँ, जितना कि तुम मुझसे, और फिर हम जल्द ही शादी कर लेंगे"
"शादी तो हमें जल्द करनी ही पड़ेगी, क्योंकि अब हम दो नहीं तीन होने वाले हैं"
"सच, वो बोला, उसकी आँखों में एक अजीब सी दहशत वहशत का रूप लेते जा रही थी, फिर तो हम कल ही जयपुर पहुँच कर शादी कर लेंगे"
सुनीता मुस्कुराकर, शर्माती हुई बाहर की ओर देखते हुए बोली "जयपुर तो आज आधी रात को ही पहुँच जायेंगे ना"
"हाँ" रात करीब दो बजे"
"अच्छा, चलो खाना खा-खाकर सो जाते हैं"
"ठीक है, और वो दोनों कहना खाने लगे
खाने के बाद सुनीता ने कहा " अब मैं सो रही हूँ, तुम भी थोडा आराम कर लो, स्टेशन आने पर मुझे उठा देना"
"अच्छी बात है" उस आदमी ने कहा ओर अपने बर्थ पर लेट गया.... 
रात का सफ़र जारी था.....
सुबह का वक़्त, करीब पांच बजे,, ट्रेन के रुकते ही, चाय वाले की तेज आवाज सुनते ही, सुनीता आँख मलते हुए उठी, चौंक कर इधर उधर देखा, सुबह का उजाला ट्रेन के भीतर तक आ रहा था, 
राजेश की बर्थ की ओर देखा, वो वहां नहीं था, उसने मन ही मन सोचा, "क्या अभी तक जयपुर नहीं आया, कहीं ट्रेन लेट तो नहीं, और ये राजेश कहाँ चला गया" उसने चाय वाले से पुछा "भाई साहब, ये कोनसा स्टेशन है?"
चाय वाले ने कहा "बहन जी, ये अजमेर है."
"क्या जयपुर अब आएगा" उसने चाय वाले से पुछा 
चाय वाला हँसते हुए बोला, "बहन जी जयपुर तो दो स्टेशन पहले ही जा चूका है, शायद आप गहरी नींद में थी इसलिए आपको जयपुर आने का पता नहीं लगा होगा"
सुनीता के दिमाग में घंटियाँ सी बजने लगी, आँखों के आगे अँधेरा सा छाने लगा, मन ही मन बोली, " राजेश.. राजेश कहाँ चला गया"
सोचती हुई, वो बहार की तरफ देखने लगी, उसने देखा कि वही रात वाली औरत स्टेशन के फूटपाथ पर एक किनारे खड़े होकर उसे ही घूर रही थी" ... उस औरत कि आँखों में उसके लिए सहानभूति थी....और सुनीता..उस औरत को ऐसे घूर रही थी, जैसे की वो आईना देख रही हो....
सुर्यदीप "अंकित" 

Friday, January 7, 2011

मैं......... (Main)

नवाजिश और करम है आपका,
कि खिजां में बहार, फिर आई !
दिल मेरा , फिर, जोर से धड़कने लगा,
जबसे दोस्तों की दुआ काम आई !!



न था शामिल, कभी मैं, दूर तलक, उनके अफ़साने में,
पहले कागज़ में ही, तस्वीर मेरी, फिर कहानी आई !!
आज की सुबह का, एक ख्वाब, सच हो निकला, 
याद पहले तेरी, फिर दर पे, तू, नज़र आई !!

suryadeep "ankit" - 7/1/2011

Thursday, January 6, 2011

रुसवाई !!!! (Ruswaai)


मेरी तस्वीर में, तेरा अख्श, नज़र, आता नहीं, 
क्या कमी है मेरी, चाहत में, समझ, पाता नहीं !!

मेरी तकदीर में, शामिल है तू, मेहरबां की तरह, 
मेहरबां क्यूँ बनी, मेहमां, समझ, आता नहीं !!

खिलके आती हैं, बहारें, बाद, मौसम-ए-खिजां,
लौट के क्यूँ, नहीं आई तू, समझ, पाता नहीं !!

माना नादान, जमाना, मुझे, कहता आया, 
तू भी कर सकती है, ये भूल, शहर, मानता नहीं !!

किसी पत्थर पे बना, अख्श, मिटा दे, कोई संगदिल,   
अपने दिल पर, लिखा एक नाम, मिटा, सकता नहीं !!
सुर्यदीप "अंकित" - ०७/०१/२०११

ये भी एक मोहोब्बत है .... (Ye bhi ek mohobbat hai)


ये भी एक मोहोब्बत है...
जो हम कतरा-कतरा, रोयें, एक-दूजे  की सुन के,
उन भीगी, आँखों से जो छलके, वो भी एक मोहोब्बत है!!    
वो हँस देना कभी, और, कभी, रो देना फिर हँस-हँस के, 
हँसने-रोने के, बीच खिली, वो मुस्कान, मोहोब्बत है!!
जो हम चुप-चुप, बातें करते, रहते हैं, एक दुसरे से, 
उन धीमे से, लफ्जों में भी, छिपती एक मोहोब्बत है!! 
जो हम तुमसे, करते आये, पर इज़हार,  न कर पाए, 
आपके लिए, वो एक, किस्सा होगा, मेरे लिए मोहोब्बत है!!
सुर्यदीप "अंकित" - ०४/०१/२०११ 

Monday, January 3, 2011

"भूल गया"... (महंगाई ) ( "Bhool Gaya" - Mahangaai)






































"भूल गया"...  
राशन- रोटी, कपडा और एक, घर का सपना टूट गया,
महंगाई ने नींद जो छीनी, सपने देखना भूल गया !!
राशन की वो लम्बी रेखा, पत्थर पर ही उकेरी है,
कब आएगी बारी मेरी, वक़्त इसी में गुजर गया !!
घर का चूल्हा, ठिठुर रहा है, बीते कुछ-एक महीनों से, 
लगता है, इस घर का मालिक, आग जलाना भूल गया !!
तन पे नहीं है कपड़े पूरे, है कुतरी सी रजाई भी,  
गांधी के, इस देश में अब, वो, चरखा चलना भूल गया !!
राह, भटकते गलियारों में, देखा खोता, एक बचपन, 
नाम जो पुछा तो, "छोटू"  बोला, असली नाम वो भूल गया !!
कहते थे की, नाम जपो प्रभु, खा, रोटी-दाल गरीबी में, 
दाल को देखे, महीनों बीते,  नाम जपन, प्रभु भूल गया 
कुछ पैसे जो, जोड़े रखे थे, एक घरोंदा, बनाने को, 
ख़त्म हो गए, घर को ढूंढते, घर को बनाना, भूल गया !!
बच्चों की कुछ, चाहत और, कुछ अपनों की फरमाइश को, 
रोके रक्खा है, अब तक ये, कहके बहाना, मैं, भूल गया !!
राशन- रोटी, कपडा और एक, घर का सपना टूट गया,
महंगाई ने नींद जो छीनी, सपने देखना भूल गया !!
सुर्यदीप "अंकित" - ०३/०१/२०११