Monday, November 21, 2011

"बेरोजगार" - BEROJGAAR - BY SURYADEEP ANKIT TRIPATHI -19/11/2011


"बेरोजगार" 
अक्सर देखा है
अल-सुबह जब सूरज जब,
मुंह धोकर, जग कर उठ बैठता है...
मुझ से पहले...
मुझको चिढाता, कहता कि,
अब तो उठ, कि
अब तो अँधेरा भी नहीं...
और मैं...
अपनी आँखों को मलते..
सुबह की अनछुई धुप को,                                                     
निहारते, उसके साथ ही
चल पढता हूँ
कदम से कदम मिला कर...
रोज़ उस अनछुई धुप को,
बदलते देखता हूँ...
कैसे वो दिन बढ़ने के साथ-साथ
अपनी उम्र भी बढ़ा लेती है
और मेरा साया भी
उसी के साथ-साथ घटता-बढ़ता,            
अपने पैरों की ठोकरों से
पत्थरों को लुढ़काता,
कभी किसी चाय की दुकान पर
या कभी..किसी मंदिर की चौखट पर,
अपने आपको जिंदा रखता
किसी बड़ी सी ईमारत में झांकता
अपनी उम्मीद को संभाले जाता
और फिर लौटता..फिर एक नई
उम्मीद को इकठ्ठा करके
वक़्त के साथ-साथ घटते
साए कोसहेजता, संभालता
रोज़ इसी तरह, शाम तक आते-आते
लौटता हुआ बिना अपने साए के साथ,
फिर उसी बंद कमरे में, जहाँ 
रौशनी भी नहीं....
है तो बस एक चूल्हा
जिसकी लकड़ियाँ अब तक ठंडी हैं..
दो खाली बर्तनों का टकराता शोर,
और पास ही रखी मेरी हर रात की,  
एक आखरी उम्मीद
उस मटके का पानी....
..... मैं सोचता हूँ.. 
ये सूरज, रात को भी साथ क्यों नहीं रहता...
सुर्यदीप अंकित त्रिपाठी - १९/११/२०११

Saturday, November 19, 2011

देश का मैं भविष्य हूँ,, SURYADEEP ANKIT TRIPATHI

देश का मैं भविष्य हूँ,,
पर अभी तक आपके हाथ मैं हूँ..
जैसे गीली मिटटी होती है...
वैसे ही मेरा मन है....
पर...मुझे आकार तो आपने ही देना है,
पर... मुझे विचार तो आपने ही देने हैं...
धूप में मुझको तपना है,
तेज़ बारिश में भीगना है,
कितने ही पहाड़ चलना है,
मेरे साथ नहीं खेलना,
की देश का में भविष्य हूँ...
पर..अभी तक आपके हाथ में हूँ.. (suryadeep ankit tripathi) 

Monday, November 14, 2011

बच्चे....सब इक से होते हैं....(Bachhe Sab Ek Se Hote Hain) -14/11/2011

बच्चे....सब इक से होते हैं........
कोई माँ की गोद में,
कोई पिता के हाथों को थामे,
हँसते, मुस्काते,
चहचहाते, खिलखिलाते....
मीठी-मीठी गोलियों का रस लेते,
और खिलोनों के बाज़ार में,
अपना एक घर खोजते,
इनके सपने भी बड़े हैं,
कुछ इक बड़े घर जैसा...
घर के बाहर कई कारों जैसा,
हाथों में दो-इक मोबाइल,
गले में सोने की चैन जैसा....
गर्म नाज़ुक बिस्तर,
और मुलायम सपने,
जो अक्सर सुबह आँख खोलते ही,
पूरे हुए दिखाई देते हैं....
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वहीँ उस बाज़ार के बाहर,
फुटपाथ पर बैठा वो बच्चा,
उसके लिए माँ..
धरती और उसकी गोद..
नाज़ुक न सही...पर बहुत बड़ी....
और सर पर...साया..
आसमान का...बनके पिता,
अपने मैले हाथों से ही,
रोटी का टुकड़ा,
दाँतों से काट के निगल रहा...
और पानी की दो बूंदों को पीकर,
खुद को तृप्त वो समझ रहा..
कुछ कंकड़....कुछ रेता लेकर...
कुछ पत्थर, पौधों को चुनकर,
अपना घर वो इक बना रहा..
इसका भी सपना है कुछ उस जैसा,

पर..
आजकल सपने भी खरीदने होते हैं..
अधूरे पैसों के सपने भी, अधूरे होते हैं..
फुटपाथ पर लेटे हुए बच्चों की,
नींद ही नहीं उनके...
सपने भी अधूरे होते हैं....
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और ऐसे ही किसी दिन,
जब सब बच्चे खुश रहते हैं,
उपहारों से लदे हुए,
कमरों में खेलते रहते हैं..
ये बच्चे भी रोज को तरह,
अपना थैला लेकर,
कचरा ढोने जाते हैं..
और महल की जूठन,
ठुकराए खिलोनों,
को पाकर ही खुश हो जाते हैं..
चाहे इनमें हो कितना ही अंतर...
बच्चे...सब एक से होते हैं..

सुर्यदीप अंकित त्रिपाठी - १४ नव. २०११