Sunday, November 28, 2010

महबूब है मेरा आया...

आज फूल खिल उठे, भंवरों ने है गीत गाया,
शरमा गई है, उपवन कि कलियाँ, महबूब है मेरा आया....
उसकी चंचल, शोख अदाएं, जैसे सागर का पानी,
पानी में भी जो आग लगादे, ऐसी उसकी जवानी,
आन बसे हैं, मन में मेरे, मन को है भरमाया.......
शरमा गई है, उपवन कि कलियाँ, महबूब है मेरा आया....
होंठ हैं उसके फूलों से कोमल, चाल है बलखाती,
बोली है उसकी इतनी मधुर कि, प्रेम का रस बरसाती,
नील गगन से आँखों में उसके, प्यार उमड़ हो आया.....
शरमा गई है, उपवन कि कलियाँ, महबूब है मेरा आया....
कितनी ही तारीफ़ करे कोई, थकती नहीं ये जुबां,
मुझको मेरा प्यार मिला है, रोशन हो उठा जहाँ
मेरे सूने गुलशन को जिसने, खुशबू से महकाया
शरमा गई है, उपवन कि कलियाँ, महबूब है मेरा आया....

सुर्यदीप "अंकित" - २६/०२/१९९४ 

निकले वो पराये.....

समझे थे जिनको, अपना हम, निकले वो पराये,
धूप ही धूप है, अब जिंदगी में, दूर हैं जुल्फों के साए,
क्या थी ख़ता, मेरी मुझको बताना
सज़ा ये मिली है, मुझे किसलिए
हम तो जिए थे, तेरे लिए ही, और हम मरेंगे तेरे लिए
समझे थे जिनको, अपना हम.....

ए आसमां तुम कुछ तो बोलो, राज दिल के आज खोलो,
चाँद भी बदली में छुपा है, निकले नहीं हैं तारे,
निकले वो पराये.....
समझे थे जिनको, अपना हम.....

ए गुलशन, तुम कुछ तो बोलो, राज चमन के आज खोलो,
कलियाँ भी थी रो पड़ी, फूल भी है मुरझाये
निकले वो पराये.....
समझे थे जिनको, अपना हम.....

ए सितारों तुम कुछ तो बोलो, राज गगन के आज खोलो,
चाँद में कितने दाग हैं बोलो, टूटे हैं कितने तारे
निकले वो पराये.....
समझे थे जिनको, अपना हम.....
सुर्यदीप "अंकित" - ०१/०२/१९९४ 

स्वप्न प्रिये !!!

स्वप्न प्रिये !!!
स्वप्न प्रिये !
अतिश्योक्ति  नहीं, सत्य है  ये,
कि तुम, और सिर्फ तुम 
ही मेरी स्वप्न प्रिये हो !!
अहसास होगा तुम्हें जब रखोगे
निज ह्रदय पर कर अपना,
पूछोगे अपने मन का सच-झूठ 
प्रति उत्तर कहेगा हृदय तुम्हारा,
कि तुम, और सिर्फ तुम,
ही उसकी स्वप्न प्रिये हो !!
अगर हृदय तुम्हारा, साथ न दे तुम्हारा
तो पूछ लेना, अपने आँचल से,
लहराएगा, बलखायेगा,
संग हवा के झूमता, यही कहता जायेगा,
कि तुम, और सिर्फ तुम,
ही उसकी स्वप्न प्रिये हो !!
अगर आँचल न लहराए तुम्हारा
तो एक कहा मानना मेरा,
अपने चंचल नेत्रों से पूछ लेना
अगर बह निकले अविरल अश्रु तुम्हारे तो
तुम, और सिर्फ तुम, ही मेरी स्वप्न प्रिये हो !!
अगर न निकले अश्रु, तुम्हारे चपल-चक्षु से,
तो उतार कर आँचल तुम्हारे अंग का,
कफ़न मेरी लाश पे बिछा देना,
फिर कह उठेगी, चिता ज्वाला,
प्रकृति में फैला करुण संगीत निराला,
कि तुम, और सिर्फ तुम,
ही मेरी स्वप्न प्रिये थी !!
बस तुम ही मेरी स्वप्न प्रिये थी,
हाँ तुम ही मेरी स्वप्न प्रिये थी ...
सुर्यदीप "अंकित" - १६/०१/१९९४ 

है एक अभिलाषा !!!

है एक अभिलाषा !!!
है एक अभिलाषा,
तुम्हें दोस्त बनाने की,
सन्यस्त -सम्पूर्ण कर देने की निज को,
चाह में सर्वस्व लुटा देने की,
है एक अभिलाषा .

पर मन है अशांत, यह सोचकर,
क्या है एक अभिलाषा, तुम्हारी भी
एक दोस्त बनाने की ?
क्या है अभिलाषा तुम्हारी भी
समर्पित
संपूर्ण कर देने की निज को, उस पर ?
या चाह में सर्वस्व लुटा देने की,
हाँ शायद यही है तुम्हारी,
एक ही अभिलाषा ..

मौन-मूक रहना, पलकें झुकाना,
जरा मुस्कुराना, जरा खिलखिलाना,
स्पर्श से यों उसके
फूलों सा सिमट जाना,
अपनी ही अदाओं से दीवाना बनाना
है यही बस तुम्हारा फ़साना पुराना
क्या अब भी उसके मन में,
नहीं होगी 
एक ही अभिलाषा 
उसे दोस्त बनाने की...
सुर्यदीप "अंकित" - ११/१२/१९९३ 

हम-तुम !!

हम-तुम !!
अब रात की बात को जाने दो,
हम रात को अक्सर जगते हैं,
तुम चैन की नींदें सोती हो,
हम एकटक तारे देखते हैं...
तुम ख्वाब सुनहरे देखती हो,
हम आंसू अपने पीते हैं
तुम ख्वाब में अक्सर हंसती हो
हम चुपके अक्सर रोते हैं....
तुम महफ़िल महफ़िल जाती हो
हम तनहा-तनहा रहते हैं,
गैरों की नहीं हम बात सनम
बस तेरी-मेरी करते हैं....
तुम हंसती गाती रहती हो,
हम अश्क बहाए जाते हैं,
फिर भी ए सनम, इक दिल के लिए,
हम तुमसे मुहोब्बत करते हैं...
अब रात की बात को जाने दो,
हम रात को अक्सर जगते हैं,
सुर्यदीप "अंकित" - ०१/०७/१९९३ 

इल्तजा !!!

इल्तजा !!!
प्यार की इल्तजा हैबस प्यार किया कीजे,
गर ठोकरें ही देनी हो, "अंकित" को,
वो भी प्यार से दिया कीजे !!
हमसफ़र हैं राहे-ज़िन्दगी के दर्दो ग़म,
कुछ पल तो मुस्कुरा लीजे
ख़ुशी तो मिल बांटा करते हो,
कुछ दर्द भी बांटा कीजे !!
ठुकरा के हर रस्म दुनिया की,
तुम भी मुस्कुरा लीजे,
पर राहे-इश्क में चलकर
इश्क को रुसवा तो न कीजे
मंदिर भी जाके, मस्जिद भी जाके,
सर झुका लिया कीजे,
ईदो-दीवाली इक साथ मनाकर,
नाकाम इरादे दुश्मन कीजे,
कोई गर पूछे नामो-मज़हब,
तो बस इतना किया कीजे,
पता अपना नहीं, हिंदो-वफ़ा का दीजे...
सुर्यदीप "अंकित" -  ०१/०९/१९९३ 

बयान-ए-दर्द !!!

बयान-ए-दर्द !!!
(१)गुमसुम-गुमसुम, तनहा-तनहा
तुम रहती हो क्यूँ 
लब से कुछ तो, बोलो सनम
चुप तुम रहती हो क्यूँ,
जब भी मैं नगमें गाता हूँ
चुपके से सुनती हो तुम,
संग मेरे ए भोले सनम,
गुनगुनाना चाहती हो तुम
जाने ये नगमे तुम्हारे लब से 
रुक जाते हैं क्यूँ ....
अपनों से रूठी रहती हो
गैरों को खुशियाँ देती हो
अपने सनम को प्यासा रखकर,
दूजों के जामों को भरती हो,
मुझसे बोलो, ए मेरे सनम, तुम
ऐसा करती हो क्यूँ .....
दर्द देके मेरे दिल को,
दिल पर ठेस लगाती हो
जो प्रेम से मेरा तेरे जिगर मैं,
दुश्मन पे उसको लुटाती हो,
मिल न सकूँगा, तुमसे फिर मैं
इतना सताती हो क्यूँ ....
लब से कुछ तो बोलो सनम,
चुप तुम रहती हो क्यूँ.......
(२) तुम क्या जानो तुम्हारे लिए मैं,
जुल्म कितना सहती हूँ,
गैरों के बीच रह कर भी मैं
तुम्ही को अपना कहती हूँ
फिर भी ए मेरे, प्यारे सनम तुम,
मुझको चाहो न क्यूँ......
सीने से मैं लगाये बैठी,
तस्वीर तेरी साजन
याद करता हैं तुझको हरपल,
मेरा सुना आँगन,
फिर तुम खुशियाँ लेकर साजन,
मेरे आँगन न आते हो क्यूँ.....
राह तुम्हारी तकते -तकते 
पलकें बिछा रही हूँ,
आयेंगे इक दिन मेरे साजन ,
उम्मीद कर रही हूँ..
गर हो सच्चा प्यार, तुम्हे तो,
फिर न आते हो क्यूँ....
लब से कुछ तो बोलो साजन,
चुप तुम रहते हो क्यूँ.....
सुर्यदीप "अंकित" २०/०५/१९९३ 

सन्देश !!

सन्देश !!
हे सूर्य! जाना नहीं है तुम्हें,
पर्वतों की गोद में छिपने
हाँ निकलो, पर्वतों से उदय हो
पर स्थिर रहो, अनंत नभ पर
शुन्य हो करो प्रतीक्षा 
प्रखर ग्रीष्म ऋतु की,
प्रखर ग्रीष्म ऋतु में
आएगा एक तुच्छ दीप,
तुम करो प्रतीक्षा उस,
उज्जवल दीप की,
शीतलता करेगा प्रदान तुम्हें,
तुम्हारी ही शुष्क किरणों से,
सानिध्य में जाओगे तुम 
श्रृंगों के पीछे उस,
माध्य दीप से ही,
हे सूर्य ! समझना तुम 
इसे "अंकित" का सन्देश 
न ये प्रार्थना, न अनुराग
बस सानिध्य की इच्छा शेष !!
सुर्यदीप "अंकित" - २०/५/१९९३  

मेरी जिंदगी !!

मेरी जिंदगी !!
कुछ मौन, कुछ खोई सी है, मेरी ज़िन्दगी
है अन्दर से प्रस्तर सी निर्जीव, उसमें पर है तो ज़िन्दगी
लाखों झंझावात हैं आये, बिखरी है हर ख़ुशी,
पर शुक्र है कि अब तक न छोड़ी है ज़िन्दगी,
यही तो है ज़िन्दगी,
कुछ जलन सी है, उन मिर्चियों कि डाली में 
आज कुछ अधिक ही तीखी है
आमों की टोकरी भी, परिवर्तन है ज़िन्दगी,
शायद ये दिन ही हैं, ऐसे, और ऐसी ही ये ज़िन्दगी 
कुछ खामोश, कुछ खोई सी है, मेरी ज़िन्दगी 
जीने को तो बहुत लोग, जिया करते हैं ज़िन्दगी 
पर कुछ ही हैं ऐसे, जो जिया करते हैं दूजों की ज़िन्दगी
कुछ भी कहो...बड़ी सुहानी है ज़िन्दगी
सुर्यदीप "अंकित" २०/०५/१९९३ 

यादें !!

यादें !!
खामोश हैं ये वादियाँ, खामोश हैं ये फिजायें 
आजा की अब तो मेरे सनम
तेरी याद बहुत ही सताए !! 
सावन के महीने में,
दुःख के बादल हैं छाए
पतझड़ तो है बीत चुका,
पर नन्हे पत्ते ना आये !!
रात की तन्हाई में,
तेरी ही यादों के हैं साए
करलूं गर में बंद पलकें
तो तेरे ही ख्वाब दिखाए !!
थक गई आँखें, तकते तकते,
यूँ ही राहें तेरी,
आजा की अब तो मेरे सनम,
तेरी राहों में फूल बिछाए
खामोश हैं ये वादियाँ, खामोश हैं ये फिजायें 
आजा की अब तो मेरे सनम
तेरी याद बहुत ही सताए !! 
सुर्यदीप "अंकित" ०९/०४/१९९३ 

सौदाई !!

सौदाई !!
ले लो मुझसे मेरी खुशियाँ ,
लौटा दो मुझको मेरे गम
जैसे पहले थे हम तनहा 
वैसे तनहा आज हैं हम.....
गैर तुम्हें खुशियाँ देंगे
सेज बिछेगी फूलों की
हम से क्या मिल सकता है,
हम से लो लाखों ही सितम ......
अपनों से दगा तुम कर बैठी,
अपनों पे किया था तुमने सितम,
और एक थे हम ये सौदाई 
जो तुमपे फिदा की जां औ तन
ले लो मुझसे मेरी खुशियाँ ,
लौटा दो मुझको मेरे गम
सुर्यदीप "अंकित" - २९/०३/१९९३