Friday, April 29, 2011

Chhar Bani Ye Kaaya Bande...छार बनी ये काया बन्दे...


छार बनी ये काया बन्दे.....

छार बनी ये काया बन्दे
छार ही एक दिन होनी रे...
जीवन सार समझ मन मूरख
काहे, मति भई तेरी दीवानी रे....छार बनी....

भर-भर गठरी, ठाठ सजाये
तेरा-मेरा कह, महल बसाये
गठरी देह सजी काठन पर
संग, धन की गठरिया न जानी रे.. छार बनी...

भोग-बिलस में जीवन बीता
ज्ञान कलश अब भी है रीता
भूला राम नाम अमृत सुख
तुने, बात न इतनी जानी रे...... छार बनी ...

उसका नाम हरे हर दुःख को
तिसना रहे न बाकी रे
ये जीवन तो आना-जाना
सुधि, उसकी न व्यर्थ ये जानी रे... 
छार बनी ये काया बन्दे
छार ही एक दिन होनी रे...
जीवन सार समझ मन मूरख
काहे, मति भई तेरी दीवानी रे.... 
सुर्यदीप अंकित त्रिपाठी - ३०/०४/२०११ 

Tuesday, April 26, 2011

इंतज़ार.....बस.... इंतज़ार.... (INTAZAAR.....BAS ..INTAZAAR..
















इंतज़ार.....बस.... इंतज़ार....
वही रास्ता है जहन में अब,  
जिस राह से तुम चल दिए...
यहीं दिन मेरे ठहर गए
दीये रात के यहीं जल गए... !!
हूँ मैं तेरे हाल से बेखबर,
मेरे दर्द की तुझे क्या खबर
कहीं अपने आपसे गुफ्तगू
कहीं आंसू अपने ही पी लिए !!
गई रात कितनी हसीन थी
तेरे बाजुओं में कसी थी मैं,  
खुली आँख, ख्वाब बिखर गया,
अरमां जिगर के यूँ जल गए !!
एक तिश्नगी तेरे दीद की
रही उम्र भर, ज़हीर बन
मेरी धडकनों ने दगा दिया
वो थम गई, हम चल दिये !!
वही रास्ता है जहन में अब,  
जिस राह से तुम चल दिए...
सुर्यदीप अंकित त्रिपाठी .... २६/०४/२०११ 

Friday, April 22, 2011

मैं नयन पटल नाहीं खोलूँ.... Main Nayan Patal Nahin Kholun....


श्रृंगार रस वो रस है जिसमें प्रेम के दौनों पहलुओं का परिचय दिया जाता है...एक है मिलन और एक है विरह... दौनों की ही अनुभूति बहुत ही संवेदनशील होती है. और दौनों का ही अपना अपना महत्व काव्य में देखने को मिलता है...आज आपके सामने श्रृंगार रस के मिलन भाव को प्रदर्शित करती ये रचना बहुत समय के बाद रख रहा हूँ... शब्दों का चयन आधुनिक नहीं है, लेकिन प्रेम का भाव कभी पुराना नहीं होता इस लिए... इसे पढ़ते वक़्त आप अपने आपको महसूस करेंगे की आप श्वेत-श्याम चित्रपटल पर यह देख रहे हैं....जहाँ नायिका को मधुर मिलन की आस है, लेकिन मन में एक संकोच, एक लज्जा भी है..वहीँ नायक किस प्रकार से नायिका को समझा रहा है...जरा देखे तो.....


मैं नयन पटल नाहीं खोलूँ, 
मोहे, लाज पिया अति आए,  

ना घूंगट पट खोलूँ, 

मन, मोरा भटक ना जाए....मैं नयन पटल नाहीं खोलूं...



चन्द्र वदन, दऊ चंचल नयना,

दंत धवल, मुख रजत सुवर्णा,

अधर अँगार, मधुर मधु बैना,

केश सुसज्जित, पुष्प पुलिकना,

क्यूं मन मधुमास न छाए.....तोहे, लाज प्रिया क्यूँ आये..... 



कँवल नयन तोरे, केश भ्रमर सम, 

लाल नयन डोरे, श्याम सुखद तन, 

रक्त अधर सज, मुरली हरे मन, 

मन उन्माद बढ़त, प्रति-प्रति क्षण,

हिय, मधुर मिलन उकसाए..... मोहे, लाज पिया यूँ आये.....



मेघ बरस धरती सुख पाए, 

बीज पनप, वृक्ष फल आये, 

तिसना प्रेम की, जल से न जाए, 

मिटे प्यास जब, प्रेम रस पाए, 

सुन, कामदेव हरसाए.... तोहे प्रेम-पाठ समझाए....

तोहे लाज प्रिया क्यूँ आये.... 

हिय, मधुर मिलन उकसाए.....

सुर्यदीप अंकित त्रिपाठी - २३/०४/२०११ 

Wednesday, April 20, 2011

कलयुग परचम लहराएगा.... KALYUG PARCHAM LAHRAAYEGA....



कलयुग परचम लहराएगा....
जब दूध को तरसेगा बचपन, 
मदिरा घर पर आ जाएगी, 
जब तेरे खून पसीने की, 
दौलत तुझसे छिन जायेगी,
जब अन्धकार होगा घर भीतर, 
घर का दीपक बुझ जाएगा, 
तब सोच तू लेना ए मानव,  कलयुग परचम लहराएगा....






जब कंठ तेरे पानी को तरसे, 
आँखों का जल भी आ सूखे, 
खेतों के आँचल भी हों फीके, 
धरा का सीना पल-पल टूटे,
जब वक़्त वहीँ रुक जाएगा,
तब सोच तू लेना ए मानव, कलयुग परचम लहराएगा ....
जब सत्य पे होगी जीत अर्थ की,  
जब काम, क्रोध हर्षायेगा, 
छुप धर्म रहेगा, घर भीतर चुप,
अधर्म ठहाके लगाएगा, 
जब दो कौड़ी के बदले मानव, 
प्राण कोई हर ले जाएगा,
तब सोच तू लेना ए मानव, कलयुग परचम लहराएगा ....
जब धर्मग्रन्थ का मान न होगा, 
होगी आडंबर की पूछ, 
संत, असंत के संग रहेगा, 
रावण बन लेगा वो लूट, 
जब झूट के हाथों, रोज़ यहाँ पे, 
सच को यूँ मारा जाएगा..
तब सोच तू लेना ए मानव, कलयुग परचम लहराएगा ....
सुर्यदीप अंकित त्रिपाठी - २३/१०/२०१० 

Monday, April 18, 2011

maa.....

वो झपकियाँ, वो थपकियाँ,

वो आधी-अधूरी नींद का, एक ख्वाब सुनहरा..

वो लोरियां, वो कहानियाँ,

वो गोद में रख के सर, ढक लेना आँचल से,

वो पा की झिडकियां, वो कैद सी खिड़कियाँ,


वो डांट से सहम के, चिपक के रोना फिर तुझसे,

वो प्यार तेरा, दुलार तेरा,

वो अपना न खाकर, मुझको खिलाना प्यार से,

अहसास ये, न जाने किस पल खो गया,

बचपन छोड़ कर, क्यों जवान मैं हो गया....

क्यों जवान मैं हो गया....

सुर्यदीप अंकित त्रिपाठी - १८/०४/२०११

Friday, April 15, 2011

(IROME SHARMILA) इरोम शर्मीला के लिए...... सुर्यदीप का समर्थन...



इरोम शर्मीला के लिए...... सुर्यदीप का समर्थन... 
मणि धरा की इक मणि,
माणिक्य सम प्रखर घनी,
विरोध की है वो एक जनी,
कथा है वो जो नहीं सुनी,

मणि धरा पुकारती,
अस्मिता विलापती,
देह नोचती, खसोटती,
क्रूरता कचोटती,

जवान न वो जवान थे,
कुछ क्रूर, कुछ हैवान थे,
थे अस्मिता से खेलते,
कलियों को पग से रोंदते,

इरोम ये सब न सह सकी,
विरोध की थी मन लगी,
शपथ उसी पल ले चली,
माँ, अन्न, जल वो तज चली,

माँ अब न घर मैं आऊँगी,
तुझे न देख पाऊँगी,
है जब तलक ये अत्त्याचार,
अन्न जल न पाऊँगी,

दशक है एक गुजर गया,
न अन्न है, न जल पिया,
विरोध मुख प्रखर किया,
इरोम ने ये प्रण किया,

नहीं हैं कान राज़ के,
न आँख में ही पानी है,
हैं धड़कने कुछ पत्थरों सी,
शर्म तो आनी जानी है,

है दरख़्त दीमकों का घर,
पत्ते नहीं हैं शाख पर,
है राज पर कटे हैं पर,
बैठा उलूक शीर्ष पर,

क्या प्रश्न लाइलाज है,
कुछ शर्म या कुछ लाज है,
कुछ तो रहे भरम मेरा कि,
न गुलाम हम, ये स्वराज है.

अभी तो एक इरोम है,
जो बसी हर एक रोम है,
न अकेली, वो इक कौम है,
कुछ पल के लिए वो मौन है,
कुछ पल के लिए वो मौन है.......


सुर्यदीप अंकित त्रिपाठी - १५/०४/२०११

Wednesday, April 13, 2011

मैं न पढ़ सका....

मैं न पढ़ सका....

मेरे बस्ते में,
कुछ चीजें संभाल रखी है मैंने, 
एक किताब पुरानी जिल्द की,
एक कलम कुछ सुखी-गीली सी, 
एक दवात पानी की नीली सी, 
दावत एक मीठी गोली सी,
चल भोर हो गई उठ भी जा, 
कुछ काम कर, कमा के ला,
कुछ खुद भी खा, घर को खिला, 
एक वक़्त तो चूल्हा जला, 
मैं चल दिया, उस मोड़ पर, 
बस्ते को घर पर छोड़ कर, 
दिन को लपेटा तोड़ कर, 
रातों की चादर ओढ़ कर, 
मैं सो गया,, मैं सो गया थक हार कर...
सुबह की धूप वो पीली थी, 
बस्ते की आँखें गीली थी, 
वो जिल्द भी कुछ उधड़ी थी, 
वो दवात थी उलटी हुई, 
वो कलम बिलकुल टूटी थी, 
मैं रो दिया.... मैं रो दिया मन मार कर
सुर्यदीप अंकित त्रिपाठी - १४/०४/२०११ 

Thursday, April 7, 2011

कि ख़त्म भ्रष्टाचार हो..!


कि ख़त्म भ्रष्टाचार हो..! 
सुर्यदीप अंकित त्रिपाठी - ०७/०४/२०११ 
पुकार हो, प्रहार हो
जन-शक्ति एकाकार हो
दुत्कार हो, ललकार हो
एक युद्ध अबकी बार हो !!                            
1. खोल दो ये खिड़कियाँ
तोड़ तो ये चुप्पियाँ,
पोछ दो ये सिसकियाँ,
कि उठ खड़े हज़ार हो !
कि उठ खड़े हज़ार हो !
2. प्रचंड एक नाद हो
एक ही आवाज़ हो
कल नहीं ये आज हो
शपथ ये अबकी बार हो  !
शपथ ये अबकी बार हो !
3. अब देश अपना मान लो
सीना अपना तान लो
तुम छीन अपना मान लो
कि ख़त्म भ्रष्टाचार हो !   
कि ख़त्म भ्रष्टाचार हो ! 
पुकार हो, प्रहार हो
जन-शक्ति एकाकार हो
दुत्कार हो, ललकार हो
एक युद्ध अबकी बार हो !! 

Saturday, April 2, 2011

बेवफाई !!!

















बेवफाई !!!
छेड़ कर राग कोई दर्द का, गाया जाए, 
भरते जख्मों को चलो फिर से, कुरेदा जाए !!
है सुकूं मुझको तेरी बेदिली, बगावत से,
क्यों न फिर याद तेरी दिल से, लगाई जाए !!
जाम कितने ही तेरी मस्त, निगाहों से पिए, 
क्यों न पैमाना कोई अश्क का, फिर भरा जाए !! 
तेरी उल्फत मेरे जीने का, सबब थी पहले,
तेरी नफरत से न क्यों उम्र, ये गुजारी जाए !!
मेरे क़दमों को तेरे, घर का पता, याद है अब तक,
क्यों न पैरों को नई राह, अब दिखाई जाए !!
सुर्यदीप अंकित त्रिपाठी - ०२/०४/२०११