Wednesday, February 23, 2011

जिंदगी....ये जिंदगी..... (zindgi ye zindgi...)


जिंदगी....ये जिंदगी.....
कभी आवाज़ एक फ़कीर सी, (दारुण, करुण
कभी हाथ की आधी लकीर सी, (छोटी)
कभी ताज की तहरीर सी, (प्रेम-मय
कभी लाश की गंभीर सी, (उदासीन, ग़मगीन, निस्तेज
ये...साली जिंदगी....जिंदगी एक ज़ंजीर सी. (जीने की बेबसी)

कभी जीत के, एक दाँव सी, (सफलप्रगति)
कभी धूप में, एक छाँव सी, (मनचाही)
कभी सेहरा में, एक गाँव सी, (तनहा नहीं, खुशहाल) 
कभी माँ के, दौनों पाँव सी, (स्वर्ग, जन्नत)
ये... प्यारी जिंदगी.... जिंदगी तेरी बाँह सी (दोस्ती, सहारा, सहयोग)
 
कभी भूले बिसरे गीत सी, (सुखद लम्हा, जो आज भी ताज़ा है)  
कभी बिछड़े कोई मीत सी, (सुखद साथ जो आज भी साथ है
कभी वो पुरानी रीत सी, (वादे, कसमें जिन पर सब आज भी कायम है
कभी याद कोई अतीत सी, (याद जो कभी नहीं मिटती)
ये.....मेरी जिंदगी.... जिंदगी तेरी प्रीत सी (प्रेम जिसकी कोई उम्र नहीं है)
सुर्यदीप  "अंकित" त्रिपाठी - २४/०२/२०११ 

Thursday, February 17, 2011

यादों की पोटली...और कविता !!!


 यादों की पोटली...और कविता !!! 
आज मैंने, अपने घर का
इक कमरा फिर से खोला
बंद पड़ी अलमारी खोली
यादों का झोला खोला
यादों के उस झोले में कुछ
लम्हों के टुकड़े भी थे
कुछ अनजाने, कुछ पहचाने
पर लगते वो अपने थे,  
टुकड़ों पर से धूल पोछकर
यादों का पिंजरा मैंने खोला......

लम्हों के उस ढेर से मुझको
इक आवाज़ सुनाई दी
कुछ परियों के किस्से जैसी
कुछ दादी की कहानी सी
कुछ जैसे बारिश में नहाना
कुछ इक धुप सुहानी सी..
कुछ बाबा की डांट के जैसा
माँ की सीख पुरानी सी
कुछ टहनी फल से लदी हुई
कुछ डगर जानी पहचानी सी,
कुछ पत्थर गोल रसगुल्ले से
कुछ सूरत राजा-रानी सी,  
टुकड़ा झटपट ले मैं उससे 
पुछा, क्या है ये सब खेला,
मैं बचपन हूँ, भोला-भाला,  
वो टुकड़ा मुझसे बोला ...
बचपन फिर से गले लगाया,
कुछ पल उसके खेला-खिलाया,

तभी फुदक कर लाल रंग का,
एक टुकड़ा चढ़ बैठा,
मेरे कंधे के ऊपर,
चौंक कर मैं उसको देखा
नज़रें थी बस उसके ऊपर,
आँखों में उसके थी एक चमक
एक मुस्कान थी होंठों पर
मैं बोला कि कौन तू भाई ?
टुकड़ा बोला ले एक जम्हाई,
भाई, मैं तेरी तरुणाई
क्या तुझको मेरी याद आई ?
मैं बोला कि हे तरुणाई,
वक़्त सदा एक सा नहीं रहता,
सब कुछ यहाँ जो हर पल घटता,
यौवन का साथ सुहाना था
दिन का चैन, रात का सोना था
संग मित्रों का ही रेला था..
मस्ती का एक मेला था..
मेले मैं थी भीड़ बहुत...
पर मैं सबसे अकेला था
मस्ती का सपना था टूट गया
दोस्ती का साथ वो छूट गया...
बचपन कि नींद को गाँव सुलाकर
साथ तेरे मैं शहर को गया,


शहर की अपनी एक जवानी थी,
हर दिन एक नई कहानी थी
बस रूपये-पैसे का खेला था,
मन बाहर से कुछ उजला था
पर भीतर देखा काला था,
जब थक कर घर को आता था
फिर खुद को तनहा पाता था
दो बर्तन और एक चूल्हा था
मैं बिन शादी का दूल्हा था,
सुन मेरी कहानी वो टुकड़ा,
भर आँखों में जल, फिर सो गया..
मैं भी उन टुकड़ों को छाती में रख,
साथ उन्ही के सो गया..

आँख खुली तो, बाहर आँगन से
एक आवाज़ सुनाई दी
खिड़की से सटकर देखा तो
आँगन में एक परछाई थी
ना तो कुछ पहचानी सी थी
ही कुछ अनजानी सी
पर चेहरा उसका देखा तो,
लगती मेरी कहानी थी
मैंने झटपट उन दो टुकड़ों को,
वापस थैले में बंद किया
बंद करी अलमारी अपनी
कमरे का दरवाज़ा बंद किया,
कुछ ही पल में, आँगन पहुंचा,
पुछा उससे कि तू है कौन ?
कुछ बोली वो परछाई,
जैसे व्रत किया कोई मौन,
बस मुस्काई, कुछ शरमाई,
फिर ले साँसों की कुछ गरमाई
बहुत निकट वो मेरे आई
मन का मंदिर कुछ भरमाया,
ये कौन आज घर में आया
सहसा बोली वो मुक्त कंठ
अपने सुख-दुःख से मिलवा दो
कर उनके आधे-आधे टुकड़े,
मेरे सुख-दुःख में मिलवा दो,,
इस दिन से हो अब तुम मेरे
और इस पल से मैं भी तुम्हारी हूँ,
पहचान मुझे मेरे प्रियतम,  
मैं कविता लिखी तुम्हारी हूँ 
अब हर पल मैं तेरे साथ रहूँ,
तेरी बातें अपने मुख से कहूँ,
चल फिर उस कमरे में चलते हैं
वो बंद अलमारी खोलते हैं,
यादों के कुछ टुकड़ों सेऔर
लम्हों के कुछ तिनकों से
एक नव-निर्माण हम  करते हैं...
एक नव-निर्माण हम करते हैं....

सुर्यदीप "अंकित" - १७/०२/२०१०