Tuesday, December 28, 2010

नव वर्ष का, हम करें अभिनन्दन !!!

करें अभिनन्दन, करें अभिनन्दन 
नव वर्ष का, हम करें अभिनन्दन
पुष्प खिले हर घर उपवन,
हो सुन्दर, उज्जवल, सुखद ये मन,
रहे प्रेम बसा प्रकृति कण- कण
नहीं द्वेष, बैर का हो कारण,
नव चित्र उकेरें जीवन का,
जो हर्षित हो, उत्त्साहित हो, 
कर्त्तव्य को प्रथम दे, मान सदा,
मन अभिमान, ना किंचित हो, 
हो दया, कृपा उन दीनन पर, 
जो तम को गुजारें सड़कों पर, 
दे कृपा- उतरन, कुछ भेंट उन्हें, 
जो जीवित कुछ राहगीरों पर, 
कुछ नाथ बनें, अनाथों के, 
कुछ हाथ बने, बेहाथों के,
कुछ भी नहीं, यदि बस मानव, 
दे भेंट उन्हें मुस्कानों के,
आदर्श बनायें हम उनकों,
जो देश के सच्चे पूत रहे,  
नहीं करें वंदन, उन सर्पों का
जिनकों गद्दी, का छूत रहे,  
करें कर्म सदा, उन्नत, उज्जवल,
बनें निर्बल जन का, एक संबल,
हो विधि का सन्मान सदा,
हो शुन्य, विधि, सम सो जंगल
हो शीश झुका, उन चरणों में, 
जिसने भी दी, पहचान हमें, 
करें आदर उन गुरुजन का हम,
जिनसे मिला ये, ज्ञान हमें
संकल्प करें, करें ये वंदन,
हो हर्षित हर मुख, और ये मन
करें अभिनन्दन, करें अभिनन्दन 
नव वर्ष का, हम करें अभिनन्दन..
सुर्यदीप "अंकित" - २८/१२/२०१०

Thursday, December 16, 2010

जिन्दगी मेरी मुझे, आज फिर से रास आई....

जिन्दगी मेरी मुझे, आज फिर से रास आई, 

तुझसे मिलने की घड़ी, जिस पल मेरे करीब आई, 
न तो शिकवा रहा किसी से अब, न तो कोई गिला ज़माने से, 
हो गया दूर सब से ए हमदम, दो घड़ी तू जो मेरे पास आई..
तेरी जुल्फों के साये में बसर है हर शाम मेरी, 
दीद रूखसार का तेरे लेके, हर एक सहर आई..
धड़कने से मेरे दिल का, मुझे ये इल्म हुआ,  
हूँ में जिंदा अभी, तेरी बातें भी इसे रास आई..
कल तलक मुझसे ख़फा थीं, ये बहारें कबसे,
खिल उठा घर मेरा, फिर से जो तू इधर आई, 
जिन्दगी मेरी मुझे, आज फिर से रास आई!!
सुर्यदीप "अंकित" - १६/१२/२०१०

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Sunday, December 12, 2010

मन कृन्दन !!

हे प्रभु, शत शत नमन तुम्हें, 
अर्पित ये मन कृन्दन तुम्हें !!
१.मन है व्यथित, है शर्मसार,
लख नित नवीन ये भ्रष्ट्राचार,
ये दुराचार, ये ब्याभिचार,
मन को कचोटते बार-बार,,
२. सोने की चिड़िया थी कभी,
अब भूख से मानव है लाचार,
है नग्न मानवता, सड़कों पर, 
माँ-बहने सहती नित अत्याचार!!
३. कहते हैं हिंद है कर रहा,
दिन-रात विकास का ये प्रसार,
फिर क्यूँ है भटकता गलियों में, 
उन्मादित सा ये बेरोजगार !!
४. क्यूँ क़द्र नहीं, उन सपनों की, 
जो निर्धन की आँखों के हैं, 
क्यूँ धनी बने हैं, धन्य प्रभु 
क्यूँ निर्धन सहता हर प्रहार!!
५. क्यूँ शिक्षा पर है बोझ यहाँ, 
क्यूँ बचपन है मुरझाया सा, 
क्यूँ यौवन करता नादानी,
क्यूँ मानवता रोती बार-बार!!
६.जन की पीड़ा का कृन्दन ये,
मन की वीणा का गुंजन ये, 
हे प्रभु, क्या तू भी भूल गया,
धरती पर लेना अब अवतार....
सुर्यदीप "अंकित" १३/१२/२०१० 

Monday, December 6, 2010

अबस ये ज़िन्दगी मेरी (I feel Alone)

*अबस ये ज़िन्दगी मेरी, है अनकही सी दास्ताँ,
है ख़लिश हर घडी दिल में, ना संग कोई आश्ना,
हैं ख्याल बंद कफ़स में, है कलम गर्द में मेरी,
है कई बेरंग से कागज़, खफ़ा-खफ़ा सा जहाँ....
है ज़दा लम्हे कई सारे, है ये ज़ाबित सा ख़ुदा,
हरे हैं ज़ख्म अभी तक, नहीं मिटे हैं निशां.... 
नहीं है दाद किसी दानिश की, न ही नेकी का चलन,
नाफ़हम हमको दिया ठहरा, और बंद करदी ये जुबां

सुर्यदीप "अंकित" - ६/१२/२०१०





*अबस - बेकार, मूल्यहीन . खलिश - चुभन, दर्द  . आश्ना - जानकार, परिचित, मित्र . कफ़स - पिंजरा
ज़दा - चोटिल, चोटग्रस्त. जाबित - कठोर, बेरहम . दाद - प्रसंसा . दानिश - जानकार, बुद्धिमान
नाफ़हम - नासमझ, बेअक्ल

I feel Alone

Sunday, December 5, 2010

भूत वर्त भवि !!!

भूत वर्त भवि !!!

अतीत की गहराइयों में
झांककर 
जब भी मैंने, मुझे देखा 
तब-तब खुद को
बस तन्हाइयों में पाया है
एक साया हुआ 
करता था,
वक़्त की धूप का हमसफ़र था
हुआ तीक्ष्ण अँधेरा 
तब साया चले गया था 
एक सर्द सा मातम छाया है,
घने तिमिर में घिरा हूँ,
हाथ को हाथ न सूझे ,
आज फिर वही साया 
अँधेरे से उजाले में
ले आया है,
बस सावन ही सावन 
हुआ करता है
अब ज़िन्दगी में
पतझड़ का मौसम
बहारों से डर सा गया है
सुर्यदीप "अंकित" ०३/०६/१९९४ 

तुम मेरी हो प्रेरणा !!!

तुम मेरी हो प्रेरणा !!!

तुम मेरी हो प्रेरणातुम ही हो मेरा आधार
तुम से हूँ ए ज़िन्दगी मैं, तुमसे ही है मेरा प्यार 
जब उदासी में घिरा था,
छाँव बनके आयी तुम ,
जब बहकने में लगा था,
साथ बनके आयी तुम
तुमसे मिलकर जिंदगी में, छा गई मेरे बहार 
तुम से हूँ ए ज़िन्दगी मैं, तुमसे ही है मेरा प्यार 

कौन देता है सहारा
जैसा तुमने मुझको दिया
दर्द लेके मेरे दिल का
खुशियों का तोहफा दिया
डाल दिया था, मेरे गले में,
अपनी कोमल बाहों का हार
तुम से हूँ ए ज़िन्दगी मैं, तुमसे ही है मेरा प्यार 

सुर्यदीप "अंकित" २८/०५/१९९४ 

आयो सावन !!

आयो सावन !!
आयो सावन सखी नाचे मयूरी -२
गरज-गरज कर बदरा बरसे,
दो नैना तोरे दरस को तरसे
याद दिलावे बहुरी..... आयो सावन ...

डाल पे बैठा पपीहा बोले,
पियूं-पियूं की बोली बोले,
आई बरहा कि बारी ...... आयो सावन...

सूनी सेज है, सूनी कलियाँ,
सूनी सी हैं, दरस बिन अँखियाँ 
अब तो रात कटे न कटे री... 
आयो सावन सखी नाचे मयूरी...
सुर्यदीप "अंकित" १७/०५/१९९२ 

नज़म

नज़म 
एक बार जो नज़र मिली थी उनसे,
फिर वो ज़माने के हर नज़ारे में थे,,
कल तलक जो थे, सिर्फ नज़रों में,
आज वो जद्दो जहन समाये थे
रहा करते थे कल तलक जो गुमशुदा,
हर एक की जुबां पे, आज वो फ़साना थे,
कितने ही आशिकों का, नाम होंठों पे था उनका,
हम तो बस गरीब, उनके बेगानों में थे,
न पूछ कि कितने सितम दिए हैं जालिम ने,
हम तो बस मगशूल सितम उठाने में थे..
सुर्यदीप "अंकित" - ०२/०२/१९९४ 

Friday, December 3, 2010

ऐसा क्यूँ होता है ?


ऐसा क्यूँ होता है,
जब तुम
रहती हो, नज़रों के सामने, 
रहती है, समस्त प्रकृति में बहार,
जैसे उतर आया हो,
ऋतुराज वसंत इस धरा पर,
और अन्यत्र 
जहाँ नहीं हो तुम,
त्रीव (तीक्ष्ण) उष्ण है वहाँ,
जैसे हो महिना ग्रीष्म जेठ (ज्येष्ठ) का,
सच जहाँ तुम हो, है वहाँ बहार.
आज ऐसी ही एक सुहानी सुबह है,
नहीं हो तुम साथ, इसलिए कुछ उदास है,
शीत के हैं दिन, समस्त प्रकृति है ठिठुर रही,
तुम्हारे न आने से, धूप भी निष्ठुर जाती रही,
बादलों ने भी छिपा लिया है, अपने आँचल में हेमराज को,
क्यूंकि नहीं निकला है, आज मेरा चाँद भी मेरे आँगन में..
सच जहाँ तुम हो, है वहाँ बहार.
सुर्यदीप "अंकित" 

Sunday, November 28, 2010

महबूब है मेरा आया...

आज फूल खिल उठे, भंवरों ने है गीत गाया,
शरमा गई है, उपवन कि कलियाँ, महबूब है मेरा आया....
उसकी चंचल, शोख अदाएं, जैसे सागर का पानी,
पानी में भी जो आग लगादे, ऐसी उसकी जवानी,
आन बसे हैं, मन में मेरे, मन को है भरमाया.......
शरमा गई है, उपवन कि कलियाँ, महबूब है मेरा आया....
होंठ हैं उसके फूलों से कोमल, चाल है बलखाती,
बोली है उसकी इतनी मधुर कि, प्रेम का रस बरसाती,
नील गगन से आँखों में उसके, प्यार उमड़ हो आया.....
शरमा गई है, उपवन कि कलियाँ, महबूब है मेरा आया....
कितनी ही तारीफ़ करे कोई, थकती नहीं ये जुबां,
मुझको मेरा प्यार मिला है, रोशन हो उठा जहाँ
मेरे सूने गुलशन को जिसने, खुशबू से महकाया
शरमा गई है, उपवन कि कलियाँ, महबूब है मेरा आया....

सुर्यदीप "अंकित" - २६/०२/१९९४ 

निकले वो पराये.....

समझे थे जिनको, अपना हम, निकले वो पराये,
धूप ही धूप है, अब जिंदगी में, दूर हैं जुल्फों के साए,
क्या थी ख़ता, मेरी मुझको बताना
सज़ा ये मिली है, मुझे किसलिए
हम तो जिए थे, तेरे लिए ही, और हम मरेंगे तेरे लिए
समझे थे जिनको, अपना हम.....

ए आसमां तुम कुछ तो बोलो, राज दिल के आज खोलो,
चाँद भी बदली में छुपा है, निकले नहीं हैं तारे,
निकले वो पराये.....
समझे थे जिनको, अपना हम.....

ए गुलशन, तुम कुछ तो बोलो, राज चमन के आज खोलो,
कलियाँ भी थी रो पड़ी, फूल भी है मुरझाये
निकले वो पराये.....
समझे थे जिनको, अपना हम.....

ए सितारों तुम कुछ तो बोलो, राज गगन के आज खोलो,
चाँद में कितने दाग हैं बोलो, टूटे हैं कितने तारे
निकले वो पराये.....
समझे थे जिनको, अपना हम.....
सुर्यदीप "अंकित" - ०१/०२/१९९४ 

स्वप्न प्रिये !!!

स्वप्न प्रिये !!!
स्वप्न प्रिये !
अतिश्योक्ति  नहीं, सत्य है  ये,
कि तुम, और सिर्फ तुम 
ही मेरी स्वप्न प्रिये हो !!
अहसास होगा तुम्हें जब रखोगे
निज ह्रदय पर कर अपना,
पूछोगे अपने मन का सच-झूठ 
प्रति उत्तर कहेगा हृदय तुम्हारा,
कि तुम, और सिर्फ तुम,
ही उसकी स्वप्न प्रिये हो !!
अगर हृदय तुम्हारा, साथ न दे तुम्हारा
तो पूछ लेना, अपने आँचल से,
लहराएगा, बलखायेगा,
संग हवा के झूमता, यही कहता जायेगा,
कि तुम, और सिर्फ तुम,
ही उसकी स्वप्न प्रिये हो !!
अगर आँचल न लहराए तुम्हारा
तो एक कहा मानना मेरा,
अपने चंचल नेत्रों से पूछ लेना
अगर बह निकले अविरल अश्रु तुम्हारे तो
तुम, और सिर्फ तुम, ही मेरी स्वप्न प्रिये हो !!
अगर न निकले अश्रु, तुम्हारे चपल-चक्षु से,
तो उतार कर आँचल तुम्हारे अंग का,
कफ़न मेरी लाश पे बिछा देना,
फिर कह उठेगी, चिता ज्वाला,
प्रकृति में फैला करुण संगीत निराला,
कि तुम, और सिर्फ तुम,
ही मेरी स्वप्न प्रिये थी !!
बस तुम ही मेरी स्वप्न प्रिये थी,
हाँ तुम ही मेरी स्वप्न प्रिये थी ...
सुर्यदीप "अंकित" - १६/०१/१९९४ 

है एक अभिलाषा !!!

है एक अभिलाषा !!!
है एक अभिलाषा,
तुम्हें दोस्त बनाने की,
सन्यस्त -सम्पूर्ण कर देने की निज को,
चाह में सर्वस्व लुटा देने की,
है एक अभिलाषा .

पर मन है अशांत, यह सोचकर,
क्या है एक अभिलाषा, तुम्हारी भी
एक दोस्त बनाने की ?
क्या है अभिलाषा तुम्हारी भी
समर्पित
संपूर्ण कर देने की निज को, उस पर ?
या चाह में सर्वस्व लुटा देने की,
हाँ शायद यही है तुम्हारी,
एक ही अभिलाषा ..

मौन-मूक रहना, पलकें झुकाना,
जरा मुस्कुराना, जरा खिलखिलाना,
स्पर्श से यों उसके
फूलों सा सिमट जाना,
अपनी ही अदाओं से दीवाना बनाना
है यही बस तुम्हारा फ़साना पुराना
क्या अब भी उसके मन में,
नहीं होगी 
एक ही अभिलाषा 
उसे दोस्त बनाने की...
सुर्यदीप "अंकित" - ११/१२/१९९३