कंप वो प्रचंड था,
कृति का इक प्रपंच था,
धरा का हिय विदार था,
जल का इक प्रहार था,
पुकार थी, चीत्कार थी,
धरा पे हाहाकार थी,
कदम-कदम पे खंड था,
ईश नेत्र बंद था,
वृक्ष थे पड़े हुए,
फल-फूल सब झडे हुए,
बंद सारी आस थी,
दफ़न हुई कुछ साँस थी,
कुछ का नहीं था कुछ पता,
कुछ ढूंढते खुद का पता,
कोई लाल माँ से दूर था,
कहीं मिट चूका सिंदूर था,
कोई गोद लाश सर्द थी,
बस दर्द की ही गर्द थी....
"सूर्य" था बुझा हुआ,
"दीप" न जला हुआ,
जलमग्न सारा क्षेत्र था,
जल में डूबा हर नेत्र था,
रंग एक था बेरंग था,
मानव वो खंड-खंड था,
कंप वो प्रचंड था,
कृति का इक प्रपंच था,
"सुर्यदीप के श्रद्धासुमन" - १८/०३/२०११
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