विस्तृत गगन में,
अक्सर,
उस अधूरे चाँद को
देखा है मैंने,
तनहा सा कभी,
कभी सितारों के साथ
कभी बादलों की ओट में,
कभी कुछ धुंधला सा,
कभी पूरा, उजला सा,
कितने ही सितारों के बीच ,
कितने ही नजारों के बीच,
है वो कब से यूँ ही
तनहा तनहा
वो एक हमसफ़र सा
लगता है मेरी तनहाइयों का
बरसों से यादों को संभाले हुए
यूँ ही, हर तरफ
बिखरे सपनों को संजोये हुए,
आस में कि कभी तो पूरे होंगे,
वो सपने
जिन्हें अपने सीने में कहीं
दबा रखा है,
दाग़ सीने में उसने भी सजा रखे हैं
गहरे, काले, न मिटने वाले,
मेरी तरह, वो भी रोज निकलता है,
टहलता है, घूमता है
आवारा सा,
और फिर, हो जाता है गुम
उन्हीं गहराइयों में
जहाँ वो है और उसकी तन्हाईयाँ हैं..
अब में उससे नहीं पूछता
कि चाँद, तू अकेला क्यों है
क्योंकि अब तन्हाई
उसे भी भाने लगी है,
यादों को संजोये, उसी में खुश है वो,
वो चाँद अब मेरी तरह तनहा नहीं है
वो चाँद अब मेरी तरह तनहा नहीं है.......
suryadeep ankit tripathi - 01/04/2011
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