Saturday, October 29, 2011

एक समंदर...(ek samandar)


रेत के सुन्दर घरोंधे,
कुछ सपनों से मेरे,
कुछ क़दमों की छाप,
इसी गीली रेत पर उकेरी,
जाती हुई.....
पर लौटती नहीं..
सूरज को भिगोता समंदर, 
नहलाता, पिघलाता उस तरफ,
और इस तरफ,
मैं जलता, सुलगता, 
पैरों को समंदर में समेटता,
चलता बेसुध,
उन क़दमों की छापों पर, 
जो जाती हैं, लौटती नहीं..... 
suryadeep ankit tripathi - 28/10/11

6 comments:

  1. बहुत ही प्यारी रचना....

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  2. ओह ..बहुत गहरे भाव ... चलता बेसुध , उन कदमो की छापों पर ,,जो जाती हैं , लौटती नहीं .. बहुत सुन्दर ..पर सुधि बनी रहे ..ये ऐसा नहीं लगता की जैसे आत्महत्या जैसा..समुन्द्र की ओर एक ही दिशा में जाना..

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  3. Nutan ji.. kai baar bebasi aur lachaari aise kadam uthakar unpar chalne ko mazboor kar deti hai...jahan se fir lautna behad mushkil ya namumkin hota hai...

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