बच्चे....सब इक से होते हैं........
कोई माँ की गोद में,
कोई पिता के हाथों को थामे,
हँसते, मुस्काते,
चहचहाते, खिलखिलाते....
मीठी-मीठी गोलियों का रस लेते,
और खिलोनों के बाज़ार में,
अपना एक घर खोजते,
इनके सपने भी बड़े हैं,
कुछ इक बड़े घर जैसा...
घर के बाहर कई कारों जैसा,
हाथों में दो-इक मोबाइल,
गले में सोने की चैन जैसा....
गर्म नाज़ुक बिस्तर,
और मुलायम सपने,
जो अक्सर सुबह आँख खोलते ही,
पूरे हुए दिखाई देते हैं....
-------
वहीँ उस बाज़ार के बाहर,
फुटपाथ पर बैठा वो बच्चा,
उसके लिए माँ..
धरती और उसकी गोद..
नाज़ुक न सही...पर बहुत बड़ी....
और सर पर...साया..
आसमान का...बनके पिता,
अपने मैले हाथों से ही,
रोटी का टुकड़ा,
दाँतों से काट के निगल रहा...
और पानी की दो बूंदों को पीकर,
खुद को तृप्त वो समझ रहा..
कुछ कंकड़....कुछ रेता लेकर...
कुछ पत्थर, पौधों को चुनकर,
अपना घर वो इक बना रहा..
इसका भी सपना है कुछ उस जैसा,
पर..
आजकल सपने भी खरीदने होते हैं..
अधूरे पैसों के सपने भी, अधूरे होते हैं..
फुटपाथ पर लेटे हुए बच्चों की,
नींद ही नहीं उनके...
सपने भी अधूरे होते हैं....
-------
और ऐसे ही किसी दिन,
जब सब बच्चे खुश रहते हैं,
उपहारों से लदे हुए,
कमरों में खेलते रहते हैं..
ये बच्चे भी रोज को तरह,
अपना थैला लेकर,
कचरा ढोने जाते हैं..
और महल की जूठन,
ठुकराए खिलोनों,
को पाकर ही खुश हो जाते हैं..
चाहे इनमें हो कितना ही अंतर...
बच्चे...सब एक से होते हैं..
सुर्यदीप अंकित त्रिपाठी - १४ नव. २०११
कोई माँ की गोद में,
कोई पिता के हाथों को थामे,
हँसते, मुस्काते,
चहचहाते, खिलखिलाते....
मीठी-मीठी गोलियों का रस लेते,
और खिलोनों के बाज़ार में,
अपना एक घर खोजते,
इनके सपने भी बड़े हैं,
कुछ इक बड़े घर जैसा...
घर के बाहर कई कारों जैसा,
हाथों में दो-इक मोबाइल,
गले में सोने की चैन जैसा....
गर्म नाज़ुक बिस्तर,
और मुलायम सपने,
जो अक्सर सुबह आँख खोलते ही,
पूरे हुए दिखाई देते हैं....
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वहीँ उस बाज़ार के बाहर,
फुटपाथ पर बैठा वो बच्चा,
उसके लिए माँ..
धरती और उसकी गोद..
नाज़ुक न सही...पर बहुत बड़ी....
और सर पर...साया..
आसमान का...बनके पिता,
अपने मैले हाथों से ही,
रोटी का टुकड़ा,
दाँतों से काट के निगल रहा...
और पानी की दो बूंदों को पीकर,
खुद को तृप्त वो समझ रहा..
कुछ कंकड़....कुछ रेता लेकर...
कुछ पत्थर, पौधों को चुनकर,
अपना घर वो इक बना रहा..
इसका भी सपना है कुछ उस जैसा,
पर..
आजकल सपने भी खरीदने होते हैं..
अधूरे पैसों के सपने भी, अधूरे होते हैं..
फुटपाथ पर लेटे हुए बच्चों की,
नींद ही नहीं उनके...
सपने भी अधूरे होते हैं....
-------
और ऐसे ही किसी दिन,
जब सब बच्चे खुश रहते हैं,
उपहारों से लदे हुए,
कमरों में खेलते रहते हैं..
ये बच्चे भी रोज को तरह,
अपना थैला लेकर,
कचरा ढोने जाते हैं..
और महल की जूठन,
ठुकराए खिलोनों,
को पाकर ही खुश हो जाते हैं..
चाहे इनमें हो कितना ही अंतर...
बच्चे...सब एक से होते हैं..
सुर्यदीप अंकित त्रिपाठी - १४ नव. २०११
बच्चे तो सब एक जैसे ही होते हैं ..मासूम, निश्छल...|
ReplyDeleteपर तक़दीर किसी को आसमान पर बैठा देती है और किसी को धरा पर ..| कोई सोने के पालने मे ..तो कोई सड़क पर ..
बहुत ही सुंदर रचना सूर्या जी ...आपको साधुवाद ...
Thanks.. Renu ji...
ReplyDeletefor your nice comment.... :)