प्रिय मित्रो,
सुर्यदीप का सादर नमस्कार !!!
अभी कुछ दिन पहले, पहाड़ गया था, अपनी जन्म भूमि, बहुत ही मनभावन, पवित्र जगह है ये देव भूमि, उत्तरांचल. वहां देखा कि बहुत अधिक पैमाने में पलायन किया गया है, छोड़ कर गए घरों की हालत बहुत ही जर्जर है, बस उन्हीं जर्जर घरों से गुजरते हुए, उन घरों की पीड़ा को सुना, बहुत कुछ कह रहे थे..... और अभी भी उन्हें उम्मीद है....कि उनमें रहने वाले फिर से आयेंगे...और....उन्हें संवारेंगे....यद्यपि ये समस्या हमारे पहाड़ों में ही नहीं...अपितु हर एक अविकसित या अल्पविकसित गाँव की है, बेहतर रोज़गार, उपचार और शिक्षा पाने के लिए आये दिन पलायन शहरों की ओर अनियंत्रित ढंग से हो रहा है.... इसी व्यथा को शब्दों में पिरोकर आपके सामने रख रहा हूँ......शायद किसी एक घर का भी भला हो सके.....
पलायन की पीड़ा - "एक घर की अंतर व्यथा"
याद है मुझको,
मुझ पत्थर के आँगन में भी,
पहली खुशियाँ आईं थी,
कोना कोना था रोशन मेरा,
शब्दों ने शहनाई बजाई थी....
बाप ने पहली पगार पर ही,
मेरी हर दीवार रंगाई थी,
बचे खुचे पैसों से फिर,
माला जगमग लगवाईं थी,
शायद आज था जनम मेरा,
तो पूजन की तैयारी थी,
टक टक करती घोडा गाडी,
धोती वाले को ले आई थी,
और माँ ने मीठी पूरी की
थाली एक सजाई थी....
कुछ उस धाता को दी थी,
कुछ धोती वाले को खिलाई थी,
सब कुछ कितना सुन्दर था,
प्यारा संसार मेरे अन्दर था,
भैया की क ख ग से लेकर,
बहिना के गीतों का मंदिर था,
बाहर आँगन एक बगीचा था,
आम का पेड़ वो कुछ नीचा था,
थी झरने की कल कल कोने में,
संग पप्पी का एक बच्चा था,
सुबह सुबह वो गायों का,
रंभाना अच्छा लगता था,
मंदिर की घंटी की टन टन से,
माँ का मुझको जगाना भाता था,
ठन्डे-ठन्डे पानी से और
गौधन से रोज़ नहाता था,
फिर चावल और दाल की गंध से,
पेट मेरा भर जाता था,
बाबु जी एक छड़ी कोट ले,
दफ्तर की ओर निकलते थे,
आते जाते कई लोग उन्हें,
राम -राम कह जाते थे,
भैया तो खाकर तुरत ही,
गोद मेरी सो जाता था,
बहिना का सोना, सब निपटाकर,
माँ के साथ ही होता था,
जब सब सो जाते गहरी नींद में,
तब मुझको भी सोना भाता था,
पर तब दरवाजे पर,
बाबु जी का आना होता था,
उनके आते ही मेरे भीतर का,
एक कोना रोने लगता था,
उनका उदास सा कुछ चेहरा,
मुझसे छिपाए नहीं छिपता था,
जाने क्या थी बात कोई,
कुछ बोल नहीं वो पाते थे,
माँ के कुछ पूछने पर भी,
बात को हँस टाल जाते थे,
यूँ ही दिन कुछ गुजर रहे थे,
कुछ हँसना कुछ रोना था,
पर अनजाने डर से घबराया,
मेरे मन का एक कोना था,
एक शाम को बाबू जब घर लौटे,
थके थके से खाट पे लेटे,
माँ ने पुछा, क्या है हाल,
चेहरा क्यों लगता बेहाल,
बोले घर ये छोड़ना होगा,
हमको शहर अब चलना होगा,
गायों को बेच-बाच के,
परदेश गुजर करना होगा,
बस अब ये घर छोड़ना होगा,
मेरी तनख्वाह है थोड़ी सी,
कैसे बच्चे रह पायेंगे,
कैसे होंगे उनके सपने पूरे,
शिक्षा से वंचित जब हो जायेंगे,
कब तक करोगी तुम भी काम,
दिन भर तो खेत, और घर का काम,
बस कुछ भी मैं कर जाऊँगा,
अब शहर की ओर ही जाऊँगा,
सुन ये पीड़ा, और ये कथा,
मन था विचलित, दुःख अथाह,
एक कंप सा मन में हो बैठा,
खिड़की दरवाजे बंद कर मैं,
खुद एक कोने में जा बैठा,
क्या अब न गूंजेगी शब्दों की,
किलकारी कोई गीतों की,
क्या अब होगा सन्नाटा सा,
क्या अब मैं रहूँगा एकाकी,
क्या अब न रहेगी गायों की,
रंभाने की आवाज़ यहाँ,
क्या अब न बहेगा ये झरना,
या फल फूलों के खेत यहाँ,
सोच सोच के ना जाने कब,
पलकें मेरी भीग गई,
बाहर बरसात थी बहुत अधिक,
ये रात भी यूँ ही बीत गई,
सुबह सुबह ही बाबू ने जब
एक आवाज़ लगाईं थी,
शायद गायों को था बेच दिया,
अब खेतों की बोली लगाई थी,
कुछ ही पल में सब ख़त्म हुआ,
मेरा हर सपना भस्म हुआ,
माँ बोली ये घर ना बेचूंगी,
जब बच्चो से होगी फुरसत,
तब राह यहीं की देखूंगी,
बाबू ने था ये मान लिया,
फिर अपना सामान लिया,
कर मुझको कैद मेरे भीतर,
शहर की ओर प्रस्थान किया,
उस रोज़ मैं रोया बहुत, सिर
अपनी ही दीवारों से टकराकर,
था फिरता पूरे घर-घर में,
था सहमा किसी को ना पाकर,
उस रोज़ मैं भूखा सोया था,
क्योंकि चूल्हा भी तो रोया था,
कई दिनों के बाद मेरे संग,
आज कोई ना सोया था,
धीरे- धीर ये रात गई,
क्योंकि लोरी भी माँ के साथ गई,
सुबह जब मैंने एक खिड़की खोली,
देखा की भोर बहुत होली,
न मंदिर की घंटी बोली,
न गायों की छूटी बोली,
मन मेरा फिर से सुबक गया,
फिर से कोने में जा दुबक गया,
धीरे- धीरे दिन गुजर गए,
मैं भी था जिन्दा बसर किये,
था मुझको माँ का भी इंतज़ार,
रक्खा था अब तक खुद को संवार,
दिन बीते- हफ्ते बीते, और
बीत गए पूरे दो साल,
कुछ भी ना मालुम था मुझको,
माँ, बाबू और बच्चों का हाल,
कुछ दूर पड़ोस में एक दिन,
कुछ हलचल सी सुनाई दी,
शायद कुछ लोग थे रहने आये यहाँ,
तो शंख की ध्वनी सुनाई थी,
दीवारों पर से कान सटाए,
बात मैं उनकी था सुन रहा,
सहसा आँखे थी चमक उठी,
कोई माँ-बाबू के हाल था कह रहा,
कुछ और समीप मैं कान लगा,
बातें उनकी अब सुनने लगा,
एक बोला कि बाबू जी का,
सब कुछ अच्छे से हो गया,
बच्चों को शिक्षा अच्छी मिली,
और माँ ने एक घर नया लिया,
बाबू का काम है चल निकला,
अब वो इधर ना आयेंगे,
सब कुछ सामान जुटा उधर,
वो वहीँ अब बस जायेंगे,.
सुन ये बातें मैं टूट गया,
आँखों से पानी फूट गया,
कुछ पल के लिए सन्नाटा था,
दिल डूबा-डूबा जाता था,
सारी उम्मीदें थी टूट गई,
खुशियाँ थी मुझसे रूठ गई,
अब मैं एकदम से तनहा था,
जीवन जीकर ही सहना था,
कुछ दिन में ही यौवन रूठ गया,
एक कोना मेरा टूट गया,
फिर सर पर हुई पानी की मार,
ओलों से टूटी मेरी दीवार,
फिर सर भी क़दमों पर आ गिरा,
फिर टूट के मैं भी बिखर गया,
अब बस दो हाथों से चलता हूँ,
बिन छत के मैं रहता हूँ,
संग चूहों के ही रहता हूँ,
रातों को अक्सर डरता हूँ,
शायद अब भी हैं कुछ साँस बची,
या फिर कोई उम्मीद बची,
क्या माँ फिर से आएगी,
क्या उजड़ा घर वो बसाएगी...
क्या माँ तू फिर से आएगी.....
क्या माँ तू फिर से आएगी.......
सुर्यदीप अंकित त्रिपाठी - १४/०६/२०११
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