प्रिय मित्रो,
नमस्कार !!!
लाल पानी, शराब, जैसा कि प्रवेश जी ने अपनी कविता में लिखा था... कि घर घर में पहुँच गई है.
और इंसान ने इसे अपनाकर अपने आपको बदल दिया है... वो कैसा था..कैसा हो गया है...
एक शराबी के घर कि स्तिथि क्या हो सकती है, ये मेरी लिखी गई पंक्तियों से विदित है...
अमीरों पर इसका असर नहीं होता, क्योंकि भरे पेट ये ज्यादा असर नहीं करती, लेकिन... एक गरीब
जो मुश्किल से दिन में एक वक्त का भोजन जुटाता है, वहां ये ज्यादा असर करती है... और वो बेचारा
भूखे पेट को कभी पानी से तो कभी इसी शराब से भरता है.. ताकि अगली सुबह वो फिर उठ सके और
निकल सके दो पैसे कमाने को....और फिर लग जाती है उसे लत, और फिर दिखता है, घर में, बच्चों पर इसका असर.
शराब और टूटते ख्वाब....
इंसां की बदलती तस्वीरें,
एक रंग नहीं कुछ ठहरा सा !
कल गंगाजल था कलश भरा,
अब गंदाजल कुछ बिखरा सा !! ...
एक रंग नहीं कुछ ठहरा सा !
कल गंगाजल था कलश भरा,
अब गंदाजल कुछ बिखरा सा !! ...
भूख नहीं है घर में मेरे,
एक चटाई सोने को,
रात की नींदें भी झपकी सी,
खाली कोना रोने को,
छत का कलेज़ा टूट चूका है,
बर्तन खाली बिखरा सा !!
सुबुक-सुबुक कर बच्चे सोये,
पेट दबाये घुटनों में,
शायद खाना अब मिल जाए,
आँखों के घर, सपनों में,
सपना शायद ठीक ही होगा,
चेहरा उनका निखरा सा !!
घर की इज्जत, घर-घर जाकर,
बरतन से बातें करती,
दो-दो पैसे जोड़-तोड़ कर,
दिन का नित सौदा करती,
आज थकी सी बैठी कबसे,
लगता दिन कुछ ठहरा सा !!
घर-बरतन सब गिरवी रख कर,
घर लाया में कुछ पैसे,
बोतल भी एक साथ मैं लाया,
पी ली आज न कभी जैसे,
बरसों बाद था चैन से सोया,
सपना जैसे सुनहरा सा !!
आँख खुली तो, घर के बाहर,
भीड़ थी, और कुछ बातें भी,
कुछ थे मुझको कोस रहे और,
कुछ कहते थे अभागे भी,
बेदम मेरी देह पड़ी थी,
दब लकड़ी में पसरा था !!
इंसां की बदलती तस्वीरें,
एक रंग नहीं कुछ ठहरा सा !
कल गंगाजल था कलश भरा,
अब गंदाजल कुछ बिखरा सा !!
कल गंगाजल था कलश भरा,
अब गंदाजल कुछ बिखरा सा !!
सुर्यदीप अंकित त्रिपाठी - २१/०६/२०११
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