"बेरोजगार"
अक्सर देखा है,
अल-सुबह जब सूरज जब,
मुंह धोकर, जग कर उठ बैठता है...
मुझ से पहले...
मुझको चिढाता, कहता कि,
अब तो उठ, कि
अब तो अँधेरा भी नहीं...
और मैं...
अपनी आँखों को मलते..
सुबह की अनछुई धुप को,
निहारते, उसके साथ ही,
चल पढता हूँ,
कदम से कदम मिला कर...
रोज़ उस अनछुई धुप को,
बदलते देखता हूँ...
कैसे वो दिन बढ़ने के साथ-साथ,
अपनी उम्र भी बढ़ा लेती है,
और मेरा साया भी,
उसी के साथ-साथ घटता-बढ़ता,
अपने पैरों की ठोकरों से
पत्थरों को लुढ़काता,
कभी किसी चाय की दुकान पर,
या कभी..किसी मंदिर की चौखट पर,
अपने आपको जिंदा रखता,
किसी बड़ी सी ईमारत में झांकता,
अपनी उम्मीद को संभाले जाता,
और फिर लौटता..फिर एक नई
उम्मीद को इकठ्ठा करके,
वक़्त के साथ-साथ घटते,
साए को, सहेजता, संभालता,
रोज़ इसी तरह, शाम तक आते-आते,
लौटता हुआ बिना अपने साए के साथ,
फिर उसी बंद कमरे में, जहाँ
रौशनी भी नहीं....
है तो बस एक चूल्हा,
जिसकी लकड़ियाँ अब तक ठंडी हैं..
दो खाली बर्तनों का टकराता शोर,
और पास ही रखी मेरी हर रात की,
एक आखरी उम्मीद,
उस मटके का पानी....
..... मैं सोचता हूँ..
ये सूरज, रात को भी साथ क्यों नहीं रहता...
सुर्यदीप अंकित त्रिपाठी - १९/११/२०११
बहुत अच्छी भावपूर्ण रचना....
ReplyDeleteThanks..Sushma ji...
ReplyDeleteसच में परिस्थितियां कुछ ऐसी ही हो जाती हैं बेरोजगार व्यक्ति के साथ .... कभी आशा कभी निराशा की धूप छाँव .....
ReplyDeleteआपसे सहमत हूँ...मोनिका जी....
ReplyDeleteआपके वक्तव्य के लिए धन्यवाद.... :)