Monday, January 10, 2011

"आईना" (Aaina - The Mirror)

"आईना"
ट्रेन चल रही थी...
अभी कुछ देर पहले ही उसने लखनऊ स्टेशन छोड़ा था. वो, उसकी पत्नी सुनीता,  इसी ट्रेन से सफ़र कर रहे थे.
शाम करीब साढ़े पांच बजे का समय था, 
"सुनीता, मैं अभी एक मिनट में आता हूँ" कहकर वो वाश रूम की तरफ बढ़ गया.
वाश रूम रेल के उस डिब्बे के अंतिम छोर पर था...दो-तीन केबिन पार करने के बाद वो वाश रूम पहुंचा, हाथ-मुँह धोने के पश्चात, जैसे ही वह वाश रूम से बाहर निकला, उसने देखा की एक औरत वहीँ बाथरूम के किनारे खाली जगह पर बैठी हुई थी, उलझे गंदे बाल जो चेहरे पर इस तरह से फैले हुए थे जैसे की चेहरा दिखाते हुए इन्हें शर्म आ रही हो,  मैले, जगह-जगह से पैबंद किये वस्त्र, और उसकी गोद में एक बच्चा, उम्र यही कोई एक-डेढ़ साल, पास में ही पड़े हुए, या यूँ कहो किसी का दिया जूठन खा रही थी.. उसने उसकी तरफ पांच रूपये का सिक्का फेंका, जो ठीक उसके पैरों के पास गिरा, उस औरत ने उसे झटपट उठा लिया...फिर सर उठा कर उस औरत ने उसकी तरफ देखा...उसकी भी नज़रें उसकी नज़रों से टकराई, उसने देखा की उस औरत की आँखों में एक अजीब सी चुभन थी..फिर उसने देखा कि उस औरत ने उसका दिया सिक्का  जोर से उसी की ओर फ़ेंक दिया, उस औरत की आँखों में अब आंसू थे.. उस आदमी ने अचंभित होकर गौर से उसकी तरफ देखा और कहा "क्यों क्या पैसा नहीं चाहिए ?" उस औरत ने कुछ न कहा, बस सिसक-सिसक कर रोती रही. वो फिर बोला - "यदि कम है तो और ले लो, कहकर उसने दस रूपये का नोट निकलकर उसकी तरफ बढाया,. उस औरत की आँखों की चुभन और तेज प्रतीत होने लगी उसे. तभी अचानक उस औरत ने उस बच्चे को नीचे जमीन पर लेटाया, और अपने चेहरे से बालों को हटाकर उस आदमी की तरफ देखा...उसकी आँखों की चुभन अब तक अंगारों का रूप ले चुकी थी. आंसू लावे की तरह बहकर उसके गालों से होते हुए, नीचे 
गिर रहे थे.... उस आदमी ने उसका चेहरा देखा.. उसकी आँखों में कुछ डर सा दिखा 
"तुम क्या चाहती हो "  एक आँखें सिकोड़ती दृष्टी उस औरत पर डाली.
" मैं" उस औरत ने चुभती आँखों से उस आदमी को घूरते हुए कहा. 
आदमी  ने मुंह फेर लिया, उसकी आँखों में एक अजीब सी दहशत दिखाई दे रही थी,
औरत उसके सामने आई और कहा, "आज इतना क्यों शर्मा रहे हो, जो नज़र तक नहीं मिला सकते ?" राजेश मैं तुम्हारी अस्मिता हूँ, वही अस्मिता, जिसे तुमने आज से दो साल पहले ठुकरा दिया था".
"नहीं" मैं तुम्हें नहीं जानता, उस आदमी ने फिर नज़रें चुराते हुए कहा, और मेरा नाम राजेश नहीं है, तुम्हें जरूर कोई गलतफहमी हुई है, मुझ जैसा कोई दिखता होगा"
"मैं, तुम्हें कैसे भूल सकती हूँ राजेश, तुम्हारे साथ ही तो मैंने प्यार किया था..और अपना घर छोड़ कर तुम्हारे साथ चली आई थी"
"मैंने कहा न, कि मैं तुम्हें नहीं जानता" अब उस आदमी ने उसकी आँखों में आँखें डालकर कहा 
"राजेश", उसने चिल्लाकर कहा "मैं नहीं जानती थी कि तुम इतने कायर होंगे, कि अपने प्यार को भी नहीं पहचानोगे, काश में तुम्हारी उन मीठी-प्यारी बातों में नहीं आती, तो इस तरह आज मैं अपनी जिंदगी नहीं जी रही होती" उस औरत कि आँखों में आंसू थे, मैंने तुम्हें प्यार किया, तुमने मुझे अपनी बातों में फँसा कर मुझे बर्बाद किया, मैंने तुम पर भरोसा करते हुए, तुम्हें अपने आपको सौंप दिया, और तुम... तुम इतने गिर गए कि मुझसे मेरा सब कुछ छीन कर मुझे अकेला छोड़ कर चले गए" 
पास के केबिन से लोग आकर वहां इकठ्ठा होने लगे, उन्होंने देखा कि वो औरत, उस आदमी पर चिल्ला रही थी, 
उस आदमी ने भीड़ कि तरफ देखते हुए कहा " देखिये भाईसाहब, ये औरत ख्वामख्वाह ही मेरे गले पड़ रही है, कह रही है कि ये मुझे जानती है और हम एक दुसरे से प्यार करते थे, आप लोगों को तो पता ही है कि आज दोपहर को ही में अपनी पत्नी के साथ इलाहाबाद से इस ट्रेन में बैठा हूँ"  
लोगों ने उस औरत को डांटते हुए कहा " क्या बात है, क्यों इस भले आदमी को परेशान कर रही हो, तुम बेशर्म औरतों को कोई भीख नहीं दे, तो तुम उसी पर दोष देने लगती हो, शर्म आनी चाहिए तुम्हें"
औरत ने कुछ बोलना चाहा लेकिन लोगों ने उसे डांटकर चुप कर दिया, वो सहम कर चुपचाप वहीँ कोने में बैठ गई, जैसे कि उसकी मन कि मुराद पूरी न हो पाई हो. 
उस आदमी ने भीड़ को धन्यवाद दिया और कहा, अच्छा हुआ आप लोग आ गए, नहीं तो पता नहीं ये औरत क्या बखेरा खड़ा करती. और वह आदमी अपने केबिन कि ओर चल पड़ा, वहां पहुँच कर वह अपनी सीट पर बैठ गया.
सुनीता ने पुछा - "बड़ी देर लगा दी"
"हाँ" वो वाशरूम थोडा बिजी था.
सुनीता ने कहा - " मैं अकेले में बहुत घबरा रही थी, तुम्हें तो पता है, मैं तुम्हारे बिना एक पल भी नहीं रह सकती"
"हाँ ये बात तो है" वो बोला
"तुम्हारे कहने से मैं तुम्हारे साथ अपने घर से भाग कर आ गई हूँ, अब मैं तुम्हारे भरोसे ही हूँ, कभी इस तरह मुझको छोड़कर मत जाना, मैं घबरा जाती हूँ"
"हाँ सुनीता, मैं भी तुमसे उतना ही प्यार करता हूँ, जितना कि तुम मुझसे, और फिर हम जल्द ही शादी कर लेंगे"
"शादी तो हमें जल्द करनी ही पड़ेगी, क्योंकि अब हम दो नहीं तीन होने वाले हैं"
"सच, वो बोला, उसकी आँखों में एक अजीब सी दहशत वहशत का रूप लेते जा रही थी, फिर तो हम कल ही जयपुर पहुँच कर शादी कर लेंगे"
सुनीता मुस्कुराकर, शर्माती हुई बाहर की ओर देखते हुए बोली "जयपुर तो आज आधी रात को ही पहुँच जायेंगे ना"
"हाँ" रात करीब दो बजे"
"अच्छा, चलो खाना खा-खाकर सो जाते हैं"
"ठीक है, और वो दोनों कहना खाने लगे
खाने के बाद सुनीता ने कहा " अब मैं सो रही हूँ, तुम भी थोडा आराम कर लो, स्टेशन आने पर मुझे उठा देना"
"अच्छी बात है" उस आदमी ने कहा ओर अपने बर्थ पर लेट गया.... 
रात का सफ़र जारी था.....
सुबह का वक़्त, करीब पांच बजे,, ट्रेन के रुकते ही, चाय वाले की तेज आवाज सुनते ही, सुनीता आँख मलते हुए उठी, चौंक कर इधर उधर देखा, सुबह का उजाला ट्रेन के भीतर तक आ रहा था, 
राजेश की बर्थ की ओर देखा, वो वहां नहीं था, उसने मन ही मन सोचा, "क्या अभी तक जयपुर नहीं आया, कहीं ट्रेन लेट तो नहीं, और ये राजेश कहाँ चला गया" उसने चाय वाले से पुछा "भाई साहब, ये कोनसा स्टेशन है?"
चाय वाले ने कहा "बहन जी, ये अजमेर है."
"क्या जयपुर अब आएगा" उसने चाय वाले से पुछा 
चाय वाला हँसते हुए बोला, "बहन जी जयपुर तो दो स्टेशन पहले ही जा चूका है, शायद आप गहरी नींद में थी इसलिए आपको जयपुर आने का पता नहीं लगा होगा"
सुनीता के दिमाग में घंटियाँ सी बजने लगी, आँखों के आगे अँधेरा सा छाने लगा, मन ही मन बोली, " राजेश.. राजेश कहाँ चला गया"
सोचती हुई, वो बहार की तरफ देखने लगी, उसने देखा कि वही रात वाली औरत स्टेशन के फूटपाथ पर एक किनारे खड़े होकर उसे ही घूर रही थी" ... उस औरत कि आँखों में उसके लिए सहानभूति थी....और सुनीता..उस औरत को ऐसे घूर रही थी, जैसे की वो आईना देख रही हो....
सुर्यदीप "अंकित" 

2 comments:

  1. बेहद खूबसूरती से घिनौने यथार्थ का यथार्थवादी चित्रण.

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