Monday, January 3, 2011

"भूल गया"... (महंगाई ) ( "Bhool Gaya" - Mahangaai)






































"भूल गया"...  
राशन- रोटी, कपडा और एक, घर का सपना टूट गया,
महंगाई ने नींद जो छीनी, सपने देखना भूल गया !!
राशन की वो लम्बी रेखा, पत्थर पर ही उकेरी है,
कब आएगी बारी मेरी, वक़्त इसी में गुजर गया !!
घर का चूल्हा, ठिठुर रहा है, बीते कुछ-एक महीनों से, 
लगता है, इस घर का मालिक, आग जलाना भूल गया !!
तन पे नहीं है कपड़े पूरे, है कुतरी सी रजाई भी,  
गांधी के, इस देश में अब, वो, चरखा चलना भूल गया !!
राह, भटकते गलियारों में, देखा खोता, एक बचपन, 
नाम जो पुछा तो, "छोटू"  बोला, असली नाम वो भूल गया !!
कहते थे की, नाम जपो प्रभु, खा, रोटी-दाल गरीबी में, 
दाल को देखे, महीनों बीते,  नाम जपन, प्रभु भूल गया 
कुछ पैसे जो, जोड़े रखे थे, एक घरोंदा, बनाने को, 
ख़त्म हो गए, घर को ढूंढते, घर को बनाना, भूल गया !!
बच्चों की कुछ, चाहत और, कुछ अपनों की फरमाइश को, 
रोके रक्खा है, अब तक ये, कहके बहाना, मैं, भूल गया !!
राशन- रोटी, कपडा और एक, घर का सपना टूट गया,
महंगाई ने नींद जो छीनी, सपने देखना भूल गया !!
सुर्यदीप "अंकित" - ०३/०१/२०११ 

3 comments:

  1. (साल कि पहली कविता, महंगाई को लेकर....कहते हैं दर्द होते-होते, उसको सहते-सहते, उसकी पीड़ा कम लगने लगती है, यही हाल है इस महंगाई का, जिसका बोझ ढोते-ढोते, हमें इसकी आदत सी हो गई है, और अपनी सारी उम्मीदों, आशाओं, फरमाइशओं को हम भूल से चुके हैं, जब कभी कुछ याद आतीं भी हैं तो. महंगाई और फटी जेबों के डर से सहम कर मजबूरन अपने आप को रोक देते हैं, मासूमियत सड़कों के किनारे ढाबों में, या किसी फुटपाथ पर खो कर रह चूका है, हर कोई उसे छोटू के नाम से पुकारता है, उसका बचपन, उसका शिक्षा पर हक, सब...इन्हीं ढाबों में, फुटपाथों पर ही ख़तम हो जाता है.. )

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  2. वाकई मंहगाई की मार ने बहुसंख्यक इंसानों को जीवन की बुनियादी आवश्यकताओं की पूर्ति करवा पाना भी भुला दिया है ।

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