Friday, January 21, 2011

पतझड़ .... वक़्त का वो बेबस लम्हा....(Patjhad..waqt ka wo bebas lamha)






पतझड़ .... वक़्त का वो बेबस लम्हा....
मैंने देखा है वक़्त के समुन्दर में बहता वो लम्हा, जो हमारी जिंदगी में कभी भी सकता है सुनामी बनकर, 
मैंने देखा हैं उन सफ़ेद बालों वाले लोगों की आँखों से बहता पानी, चेहरे की पीड़ा, वो मायूसी, वो बेबसी
जो उन्हें देखनी पड़ती है उम्र के इस मुकाम पर.
मैंने देखा है पतझड़ आने पर टूटते पत्ते, और देखा है उनकी जगह लेती नई जिंदगी,
मैंने देखा है एक पुरानी कुर्सियों का बंद वो कमरा, जिसके बाहर सजें हैं आलिशान सोफे..
और.....मैंने ये भी देखा है, कि किस तरह लोग धकेल देते हैं अपने ही वजूद को घर के बाहर...
एक ऐसी ही घड़ी का सामना, जब...उम्र के इस मुकाम पर इन बुजर्गों को करना पड़ता है तो...उनकी लाचारी, 
बेबसी बस यही बयाँ करती है और एक दुसरे को समझाती है कि ...

1. चलो दुनियाँ के सितम भूलें, यहीँ छोड़ें आँसू,

ग़म की ये रात भी ढल जाएगी, सुबह, आएगी !!
पीछे मत देख, कि अब घर का नहीं नामों-निशाँ, 
आग से ख़ाक हुई खुशियाँ, नहीं दिख पायेंगी !!
2. है भरोसा मुझे ख़ुद पर, कि बसर चैन से होगी,
ये यकीं तू भी दिलाएगी तोतकदीर, निखर जायेगी !!
जिन्दा रहने के लिए, नहीं रोटी, तेरी उल्फत काफी,
रख संभाले यही यादें, वक्त-बेवक्त, काम आएँगी !!
3. साथ तेरा है तो, राहें भी निकल आएँगी,
हाथ तेरा, जो मेरे हाथ, जिंदगी ये भी सँवर जायेगी !! 
हर कदम साथ तेरा, साथ चले गर, मेरे हमदम,
मुश्किलें, पीछे, बहुत पीछे, छूट जाएंगी !!
सुर्यदीप "अंकित" - २१/०१/२०११ 

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