मैं न पढ़ सका....
कुछ चीजें संभाल रखी है मैंने,
एक किताब पुरानी जिल्द की,
एक कलम कुछ सुखी-गीली सी,
एक दवात पानी की नीली सी,
दावत एक मीठी गोली सी,
चल भोर हो गई उठ भी जा,
कुछ काम कर, कमा के ला,
कुछ खुद भी खा, घर को खिला,
एक वक़्त तो चूल्हा जला,
मैं चल दिया, उस मोड़ पर,
बस्ते को घर पर छोड़ कर,
दिन को लपेटा तोड़ कर,
रातों की चादर ओढ़ कर,
मैं सो गया,, मैं सो गया थक हार कर...
सुबह की धूप वो पीली थी,
बस्ते की आँखें गीली थी,
वो जिल्द भी कुछ उधड़ी थी,
वो दवात थी उलटी हुई,
वो कलम बिलकुल टूटी थी,
मैं रो दिया.... मैं रो दिया मन मार कर
सुर्यदीप अंकित त्रिपाठी - १४/०४/२०११
आज आपने मजबूर संवेदना को आवाज़ दिया है !
ReplyDeleteमार्मिक अभिव्यक्ति !
Dhanyavaad Marmagya ji...
ReplyDeleteaur aapki ye panktiyan... bahut roshni deti hai...aaj ke samaaj ko...
ReplyDeleteरौशनी की कलम से अँधेरा न लिख
रात को रात लिख यूँ सवेरा न लिख
पढ़ चुके नफरतों के कई फलसफे
इन किताबों में अब तेरा मेरा न लिख....