शहर की दौड़ में, दौड़ते रहे उम्र भर - उम्र भर !
भागते, भटकते रहे यूँ ही दर-ब-दर और दर-ब-दर !!
भूले वो यारों का साथ, भूले वो बचकानी सी बात !
भूल बैठे पतंगों के वो पेंच, भूले वो चरखी पकड़ना !
लूटना पतंगों को, दोस्तों से लड़ना-झगड़ना !!
भूले वो स्कूल से भागकर आना, गलियों में किसी छोर पे कंचे खेलना !
भूले वो चुपके से मिठाई खाना, माँ के बुलाने पर भी न घर को आना !!!
बस... अब तो बस सिर्फ याद ही हैं बाकी....क्योंकि ...
शहर की दौड़ में, दौड़ते रहे हैं अब तक...
मंजिलों का तो पता नहीं, रास्ता साफ़ नजर में नहीं घर तक!!!
सुबह से शाम हुई जाती है, और रात भी ढल जाती है!
कोई ख़ुशी नहीं देती मेरे दरवाज़े पे दस्तक !!!
निकल जाता हूँ मैं, घर से इसी उम्मीद में, इमारतों की तरफ !
कि कौनसी है वो ईमारत, जो मेरे नसीब में नहीं लिखी गयी अब तक !!
ढूंढता हूँ, भटकता हूँ, और फिर दर-ब-दर , दर-ब-दर!!!
शहर की दौड़ में, दौड़ता ही रहा उम्र भर - उम्र भर.
सुर्यदीप " अंकित" - २३/०८/२०१०
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