बयान-ए-दर्द !!!
(१)गुमसुम-गुमसुम, तनहा-तनहा
तुम रहती हो क्यूँ
लब से कुछ तो, बोलो सनम,
चुप तुम रहती हो क्यूँ,
जब भी मैं नगमें गाता हूँ,
चुपके से सुनती हो तुम,
संग मेरे ए भोले सनम,
गुनगुनाना चाहती हो तुम
जाने ये नगमे तुम्हारे लब से
रुक जाते हैं क्यूँ ....
अपनों से रूठी रहती हो
गैरों को खुशियाँ देती हो,
अपने सनम को प्यासा रखकर,
दूजों के जामों को भरती हो,
मुझसे बोलो, ए मेरे सनम, तुम
ऐसा करती हो क्यूँ .....
दर्द देके मेरे दिल को,
दिल पर ठेस लगाती हो
जो प्रेम से मेरा तेरे जिगर मैं,
दुश्मन पे उसको लुटाती हो,
मिल न सकूँगा, तुमसे फिर मैं
इतना सताती हो क्यूँ ....
लब से कुछ तो बोलो सनम,
चुप तुम रहती हो क्यूँ.......
(२) तुम क्या जानो तुम्हारे लिए मैं,
जुल्म कितना सहती हूँ,
गैरों के बीच रह कर भी मैं,
तुम्ही को अपना कहती हूँ,
फिर भी ए मेरे, प्यारे सनम तुम,
मुझको चाहो न क्यूँ......
सीने से मैं लगाये बैठी,
तस्वीर तेरी साजन,
याद करता हैं तुझको हरपल,
मेरा सुना आँगन,
फिर तुम खुशियाँ लेकर साजन,
मेरे आँगन न आते हो क्यूँ.....
राह तुम्हारी तकते -तकते
पलकें बिछा रही हूँ,
आयेंगे इक दिन मेरे साजन ,
उम्मीद कर रही हूँ..
गर हो सच्चा प्यार, तुम्हे तो,
फिर न आते हो क्यूँ....
लब से कुछ तो बोलो साजन,
चुप तुम रहते हो क्यूँ.....
सुर्यदीप "अंकित" २०/०५/१९९३
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