सन्देश !!
हे सूर्य! जाना नहीं है तुम्हें,
पर्वतों की गोद में छिपने,
हाँ निकलो, पर्वतों से उदय हो,
पर स्थिर रहो, अनंत नभ पर
शुन्य हो करो प्रतीक्षा
प्रखर ग्रीष्म ऋतु की,
प्रखर ग्रीष्म ऋतु में,
आएगा एक तुच्छ दीप,
तुम करो प्रतीक्षा उस,
उज्जवल दीप की,
शीतलता करेगा प्रदान तुम्हें,
तुम्हारी ही शुष्क किरणों से,
सानिध्य में जाओगे तुम
श्रृंगों के पीछे उस,
माध्य दीप से ही,
हे सूर्य ! समझना तुम
इसे "अंकित" का सन्देश
न ये प्रार्थना, न अनुराग
बस सानिध्य की इच्छा शेष !!
सुर्यदीप "अंकित" - २०/५/१९९३
No comments:
Post a Comment